सत्ता का अपना चरित्र है, वह असहमति के स्वर को दबाने हमेशा ही झूठ-छल कपट और षडय़ंत्र का सहारा लेते रही है। ऐसे में 26 जनवरी को किसान आंदोलन के दौरान जो कुछ हुआ, वह किसी साजिश का हिस्सा नहीं रहा होगा कहना कठिन है।
भले ही हम 1947 में आजाद हो गये और देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू कर दी गई लेकिन सच तो यही है कि लोकतंत्र केवल चुनाव ही बन कर रह गया है, चुनाव को ही हमने लोकतंत्र मान लिया है। जबकि लोकतंत्र का असली मकसद आम जनमानस की सत्ता के हर फैसले में भागीदारी है लेकिन किसी भी सत्ता ने इसे स्वीकार नहीं किया।
यही वजह है कि राजनैतिक दल जब तक सत्ता में नहीं पहुंच जाते उनकी भाषा अलग होती है और सत्ता आते ही उनकी भाषा बदल जाती है। वर्तमान सत्ता को ही ले लिजीए कृषि सुधार को लेकर जब कांग्रेस कानून ला रही थी तब संसद से लेकर सड़क तक भाजपा ने किस तरह का विरोध किया था। ऐसे कितने ही मुद्दे है जब भाजपा विपक्ष में रहते हुए असहमत रही और सत्ता आते ही भूल गई। जीएसटी से लेकर लोकपाल, में भाजपा के रवैये में बदलाव स्पष्ट था। यही हाल कांग्रेस का भी है।
ऐसे में जब कोई सत्ता में हो तो आंदोलन को कुचलने की उसकी अपनी रणनीति है। 60 दिनों से जो किसान आंदोलन शांतिपूर्वक चल रहा था वह 26 जनवरी को अचानक हिंसक कैसे हो गया। यह सवाल इसलिए उठाये जा रहे हैं क्योंकि आंदोलन के दौरान दिल्ली में न निजी वाहन पर हमले हुए और न ही आम लोगों पर ही हमला हुआ।
केवल लाल किले और सरकारी तंत्र को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया और इस घटनाक्रम से आंदोलन से जुड़े देशभर के लोगों में सन्नाटा है वे आंदोलन को लंबा तो खींचना चाहते हैं लेकिन 26 जनवरी को हुए उपद्रव से निराश हैं।
यही वजह है कि किसानों ने एक फरवरी को सांसद मार्च को स्थगित कर दिया। आंदोलन अचानक वही पहुंच गया जहां से यह शुरु हुआ था।
वैसे भी इस देश में आजादी के बाद इतना बड़ा आंदोलन गिनती के हुए हैं और हर आंदोलन को सत्ता ने कुचलने के सारे उपक्रम किये हैं।
सत्ता ताकतवर होती है और उससे जीतना न पहले आसान था और न अब। क्योंकि सत्ता लोकतंत्र नहीं होती है वह राजशाही का दर्शन होता है। लोग तो तंत्र में उलझे हुए हैं ऐसे में आगे क्या?
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