बुधवार, 13 जनवरी 2021

विश्वास का संकट...


 

सुप्रीम कोर्ट में किसान आंदोलन को लेकर जो फैसला दिया है उसे लेकर आने वाली प्रतिक्रिया ने एक बार फिर विश्वास का संकट खड़ा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने तीनो ंकानून के अमल पर रोक लगाते हुए कमेटी गठित कर दी है। और यही से सवाल उठा है कि इस फैसले से क्या सरकार को राहत नहीं मिली है।

हमने कल ही कह दिया था कि यह समर्पण का स्वर है, समर्पण की ध्वनि साफ सुनाई पड़ रही है क्योंकि किसानों ने जब साफ कह दिया है कि तीनों कानून को वापस लिये बगैर वे घर नहीं लौटने वाले है। और कृषि जब राज्य का अधिकार है तब इस तरह का कानून बनाना किस तरह से उचित है!

ये सच है कि सुप्रीम कोर्ट ने आंदोलन को लेकर सरकार के खिलाफ तीखे प्रहार किये हैं लेकिन यह भी सच है कि कमेटी में जिन सदस्यों को लिया गया है उनमें से चार सदस्य तो किसान कानून के समर्थक है।

ऐसे में आंदोनकारी किसानों के गुस्से को जायज ही कहा जाना चाहिए कि आखिर जो लोग पहले से ही इन तीनों कानून के समर्थन में है वे किस तरह से न्याय करेंगे। और जब कमेटी ही पक्षधर हो तो फिर न्याय कैसे निष्पक्ष होगा।

पिछले वर्षों में जिस तरह से विरोध के स्वर को देशद्रोह की संज्ञा दी जाने लगी है वह हैरान कर देने वाला है कि आखिर हम किस तरह का देश बना रहे हैं।

सवाल यह नहीं है कि अटार्नी जनरल ने आंदोलन को खालिस्तानी मदद बताया है? और न ही सवाल यह है कि आंदोलन को लेकर किसान क्या सोचते है। सवाल तो यही है कि क्या सत्ता के खिलाफ होने वाले हर बड़े आंदोलन को देशद्रोही करार देने का प्रचलन चल पड़ा है और क्या यह गंभीर बात नहीं है।

फिलहाल किसानों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमति जता दी है और ऐसे में भले ही सरकार के लिए यह फैसला राहत भरा है लेकिन इससे विश्वास का संकट तो खड़ा हो ही गया है।

ऐसे में यह शेर याद आना चाहिए-

मेरा मुनसिब ही मेरा कातिल है

क्या मेरे हक में फैसला देगा।

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