सोमवार, 19 अप्रैल 2021

जन की बात

 

देवभूमि में लगातार हो रही मौत से सत्ता के प्रति गुस्सा स्वाभाविक है लेकिन उससे भी ज्यादा गुस्सा उन लोगों के प्रति है जो सबकुछ देखते-समझते मौन है। जनमानस को इतना कायर और निहिर हमने कभी नहीं देखा। लगातार अपने ही आसपास हो रही मौत, आपदा में अवसर की तलाश करते नेता व्यापारी फिर भी मौन?

ये सच है कि जब से मोदी सत्ता आई है, सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलना देशद्रोह हो गया है, बहुत से लोग यह मानने लगे हैं या उनका अनुभव है कि इस सरकार से कोई अच्छी बात की जाये, या उनके गलत नीतियों के लिए कुछ बोला जाये तो वे तनिक भी लज्जित नहीं होते, उल्टा झगड़े पर उतारु हो जाते हैं। देशद्रोह कह देते हैं, पाकिस्तान चले जाने की बात करते हैं। सत्ता की ताकत और इस विषैले व्यवहार की वजह से कोई खुलकर विरोध नहीं करता। उनके अनुचित व्यवहार को देखते हुए सामान्यत: बहुत से लोग आंखे मूंद लेते हैं, मौन रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। विपक्ष भी ज्यादा कुछ नहीं कहता, उनके ही उघमहीनता की वजह से मोदी सत्ता का अहंकार सर चढ़कर बोल रहा है। वरना कोरोना के दूसरी लहर के बाद भी चुनावी रैली होती या कुंभ का आयोजन किया जाता।

जनता ही नहीं लगता है समूचा विपक्ष ही निरीह हो चला है वरना चुनाव आयोग की इतनी हिम्मत नहीं है कि इस भीषण महामारी में मरते हुए लोगों के बीच ऐसी चुनावी रैली की अनुमति दे जो सीधा सीधा जनसामान्य की हत्या करने जैसी हो। क्या इस देश का विपक्ष नैतिक-सामाजिक भावनाओं से शून्य, हतवीर्य तथा कायर और जड़ वस्तु नहीं बन गया है। पूरा देश कोरोना के कहर से लाशें गिन रहा है और अब तो कई अखाड़ों ने कुंभ के समाप्त करने की घोषणा कर दी है और बंगाल में ममता ने एक ही साथ बचे चुनाव को करा डालने का प्रस्ताव चुनाव आयोग को दे दिया है। 

तब बाकी विपक्ष क्यों यह प्रस्ताव नहीं देता। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से इस तरह के प्रस्ताव की उम्मीद ही बेमानी है क्योंकि वे तो अपनी पूरी शक्ति बंगाल को जीतने में लगाये हुए हैं। भाजपा जानती है कि बंगाल में उनका कैडर नहीं है इसलिए चुनाव आयोग ने भी भाजपा की स्थिति को देखते हुए आधा दर्जन से अधिक चरण में चुनाव कराने का निर्णय लिया है तब भला बगैर सत्ता से पूछे वह बाकी बचे चुनाव कैसे एक साथ कराने का निर्णय ले सकती है।

शायद सत्ता को अभी और लाशें गिननी है। तब सवाल यही है कि क्या जनता की मौतों से बड़ी सत्ता है, क्या लोकतंत्र में किसी को इतना अधिकार है कि वह अपनी मनमानी कर ले। इस विषम परिस्थिति में स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हजारों की रैली कर रहे हो तब आम जनमानस क्या सोचे? या उनकी सोच पर ही इस सत्ता ने पाबंदी लगा दी है।

शर्मनाक बात तो यह भी है कि समूचे विपक्ष में भी कोई ऐसा दमदार नेता नहीं है जो मौत की ओर ढकेलने के इस खेल का विरोध करे। हम किन परिस्थितियों में जी रहे हैं। क्या हमारी सत्ता सभ्यता संस्कृति से दूर हिंसक पशुओं से भी गये गुजरे नहीं हो गई है। यह ठीक है कि लोकतंत्र में सत्ता महत्वपूर्ण है लेकिन लाशों पर खड़ा होकर सत्ता पाने की आकांक्षा रावण और राक्षसी प्रवृत्ति है।

रावण भी शिवभक्त था, उससे बड़ा शिवभक्त कौन था लेकिन किसी की पूजा और भक्ति देख उसकी राक्षसी प्रवृत्ति को नजर अंदाज करना मूर्खता होगी।

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