अब भी कई थे लेकिन जवाब कहीं से नहीं आ रहा था, एक तरफ सत्ता इस महामारी से लडऩे का अंडबर कर रही थी तो दूसरी तरफ वही सत्ता चुनावी रैली में भीड़ देखकर खुशी मचा रहा था, संवेदनहीन सत्ता को देवभूमि में गिरती लाशें क्या दिखाई नहीं दे रहा था या फिर सत्ता की महत्वाकांक्षा ने उसे संवेदनशून्य कर दिया था।
परीक्षा में कठिन सवाल पहले हल करने की बात पर बहस होने लगा था, यह बात वही व्यक्ति कर सकता है जो यह तो मूर्ख हो या धूर्त! क्योंकि वह अपनी धूर्तता से बातों में लोगों का उलझा देना चाहता है ताकि मूलभूत जरूरतों की ओर से लोगों का ध्यान हट जाए और लोग फिजूल की बातों में लग जाए। पिछले सालों से इस देश में क्या यही नहीं चल रहा है?
तब कोरोना की भयावक स्थिति को निपटने और लोगों की जान माल की सुरक्षा करने का दायित्व क्या सरकार का नहीं है? यदि है तो इसका एकमात्र उपाय है जो सत्ता नहीं कर रही है, वह उपाय है सभी का मुफ्त में ईलाज, घर पहुंच सेवा और सभी तरह के उन आयोजनों की बंदिश जिसमें भीड़ जुटती है।
लेकिन हैरानी तो इस बात की है कि जो लोग मरकज में जुटे भीड़ पर विषवमन करते है वे कुंभ या चुनावी रैली की भीड़ पर बोलने से कायर डरपोक हो जाते हैं।
तब जब सब तरफ उदासी, सन्नाटा व रोशनी की उम्मीद खत्म होने लगी हो, कितने ही परिवार पर कहर टूट पड़ा हो तब सत्ता की बेरुखी से लोकतंत्र के प्रति अविश्वास क्या कम नहीं होगा? जबकि सत्ता को मानव समाज के हित के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करना चाहिए?
और एक बात...
तुम ही राम हो...
क्या तुमने लाशें देखी है
नहीं, तुमने तो कोरोना के
कहर से तड़पते लोग भी
नहीं देखे हैं।
मैं जानता हूं कि
परिस्थितियां विपरीत है
दूर से अंधेरा आता
दिख रहा है
लेकिन कब तुमने
रोशनी की व्यवस्था की?
गिरती लाशें, बिखरता परिवार
और आंसुओं के सैलाब
पर भी जब हिन्दुत्व
भारी हो जाए तो
व्यक्ति रावण हो जाता है,
दरअसल रावण व्यक्ति नहीं
रावण प्रवृत्ति है।
रावण का मतलब
शिव भक्त होना नहीं है,
और न ही रामेश्वरम् बना देना,
रावण का मतलब है अन्याय,
तब स्वयं को, हर एक को
राम बनना होगा
सत्ता के इस अत्याचार पर
बोलना होगा
बेधड़क, निडर!
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