बुधवार, 21 मई 2025

राजीव का सच…

राजीव का सच…



राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर उन्हें श्रद्धांजलि दी तो राजीव से जुड़े क़िस्से एक बार फिर लोगों के ज़ेहन में समा गया।

वह सौम्य और मुस्कुराता चेहरा, जिस पर किसे प्यार न आ जाये

उपलब्धियों का ऐसा पिटारा जिस पर देश को गर्व हो, 

नवोदय स्कूल, पंचायती राज, सूचना क्रांति, राममंदिर का ताला खुलवाना और वोट देने १८ साल के युवाओं को अधिकार ।

और शायद यही वजह थी कि स्वराजीव गॉधी की अंतिम यात्रा में शामिल होने दुनिया के 64 देशों से उच्च स्तरीय प्रतिनिधि आये थे , जिसमें से 20 राष्ट्राध्यक्ष थे।किसी भी देश के पूर्व प्रधानमंत्री की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिये इतनी बड़ी संख्या में विदेशी प्रतिनिधियों  राष्ट्राध्यक्षों काशामिल होना यह दर्शाता है कि राजीव गॉधी को पूरा विश्व कितनी अहमियत देता था  यूएनओ के महासचिव  फ़िलिस्तीन के यासीरअराफात भी आये थे। यासीर अराफ़ात साहब जैसे मज़बूत शख़्स को भी राजीव जी के मृत शरीर के पास रोते हुऐ देखा गया था अमेरिका के House of Representatives के सदस्यों ने सदन में दो मिनट का मौन रखकर राजीव जी को श्रद्धांजलि दी थी औरतत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने गहरी संवेदना व्यक्त करते हुऐ राजीव जी अपने संबंधों को याद किया था।

राजीव को बस पांच साल मिले। प्रशासनिक रूप से वे बेहद कल्पनाशील,सफल थेराजनैतिक रूप से उतने ही अल्हड़। मित्रो और सलाहकारो पर भरोसा भी प्रेम का एक रूप है। उनके दौर के कुछ फैसले सम्प्रदायिक राजनीति की जड़ में माने जाते है। मगर कोई ये नही कह सकता कि राजीव साम्प्रदायिक व्यक्ति थे। प्रेमिल व्यक्ति वैसा हो ही नही सकता। 

राजीव के परिवार में प्रेम की वही धारा बहती है। राजीव की हत्या के बाद तीस बरसो में उन्होंने क्या नही देखा। सत्ता का सुखअपमानका सागर। बच्चो का चाइल्डहुड ट्रामाउससे उबरनाडूबना , झूलनासँघर्ष करनासामना करना.. चाहे आप उनके तरीकों औरस्मार्टनेस पर सवाल उठा लें। उनके जूतेकपड़ेजीवन शैली पर बदनाम करेंएब्यूज करें। मगर उनकी आंखों में नफरत कभी नहीमिलेगी।

नफ़रत के इस दौर में राजीव को याद करने के कई मायने है..

इसमें सोनिया गांधी के पत्र के उस अंश को भी पढ़ें और सुने की राजनीति हमे कहाँ पर ला कर पटक दिया है…

मुझे मेरा राजीव लौटा दीजिए मैं लौट जाऊंगी, नहीं लौटा सकते तो मुझे भी इसी मिट्टी में मिल जाने दो


आपने देखा है न उन्हें। चौड़ा माथा, गहरी आंखे, लम्बा कद और वो मुस्कान। जब मैंने भी उन्हें पहली बार देखा, तो बस देखती रह गयी। साथी से पूछा- कौन है ये खूबसूरत नवजवान। हैंडसम! हैंडसम कहा था मैंने। साथी ने बताया वो इंडियन है। पण्डित नेहरू की फैमिली से है। मैं देखती रही। नेहरू की फैमिली के लड़के को।


कुछ दिन बाद, यूनिवर्सिटी कैंपस के रेस्टोरेन्ट में लंच के लिए गयी। बहुत से लड़के थे वहां। मैंने दूर एक खाली टेबल ले ली। वो भी उन दूसरे लोगो के साथ थे। मुझे लगा, कि वह मुझे देख रहे है। नजरें उठाई, तो वे सचमुच मुझे ही देख रहे थे। क्षण भर को नज़रें मिली, और दोनो सकपका गए। निगाहें हटा ली, मगर दिल जोरो से धड़कता रहा।


अगले दिन जब लंच के लिए वहीं गयी, वो आज भी मौजूद थे। वो पहली नजर का प्यार था। वो दिन खुशनुमा थे। वो स्वर्ग था। हम साथ घूमते, नदियों के किनारे, कार में दूर ड्राइव के लिए निकलते, हाथों में हाथ लिए सड़कों पर घूमना, फिल्में देखना। मुझे याद नहीं कि हमने एक दूसरे को प्रोपोज भी किया हो। जरूरत नही थी, सब नैचुरल था, हम एक दूसरे के लिए बने थे। हमे साथ रहना था। हमेशा।


उनकी मां प्रधानमंत्री बन गयी थीं। जब इंग्लैंड आईं तो राजीव ने मिलाया। हमने शादी की इजाजत मांगी। उन्होंने भारत आने को कहा। भारत? ये दुनिया के जिस किसी कोने में हो राजीव के साथ कहीं भी रह सकती थी। तो आ गयी। गुलाबी साड़ी, खादी की, जिसे नेहरू जी ने बुना था, जिसे इंदिरा जी ने अपनी शादी में पहना था, उसे पहन कर इस परिवार की हो गयी। मेरी मांग में रंग भरा, सिन्दूर कहते हैं उसे। मैं राजीव की हुई, राजीव मेरे, और मैं यहीं की हो गयी।


दिन पंख लगाकर उ’ड़ गए। राजीव के भाई नही रहे। इंदिरा जी को सहारा चाहिए था। राजीव राजनीति में जाने लगे। मुझे नही था पसंद, मना किया। हर कोशिश की, मगर आप हिंदुस्तानी लोग, मां के सामने पत्नी की कहां सुनते हैं। वो गए, और जब गए तो बंट गये। उनमें मेरा हिस्सा घट गया। फिर एक दिन इंदिरा जी बाहर निकलीं तो गो’लियों की आवाज आई। दौड़कर देखा तो खू’न से ल’थप’थ। आप लोगों ने छ’लनी कर दिया था। उन्हें उठाया, अस्पताल दौड़ी, उन खू’न से मेरे कपड़े भीगते रहे। मेरी बांहों में द’म तोड़ा। आपने कभी इतने करीब से मौ’त देखी है?


उस दिन मेरे घर के एक नही, दो सदस्य घट गए। राजीव पूरी तरह देश के हो गए। मैंने सहा, हंसा, साथ निभाया। जो मेरा था, सिर्फ मेरा उसे देश से बांटा। और क्या मिला। एक दिन उनकी भी ला’श लौटी। कपड़े से ढंका चेहरा। एक हंसते, गुलाबी चेहरे को लोथड़ा बनाकर लौटा दिया आप सबने।

उनका आखरी चेहरा मैं भूल जाना चाहती हूं। उस रेस्टोरेंट में पहली बार की वो निगाह, वो शामें, वो मुस्कान।बस वही याद रखना चाहती हूं। इस देश में जितना वक्त राजीव के साथ गुजारा है, उससे ज्यादा राजीव के बगैर गुजार चुकी हूं। मशीन की तरह जिम्मेदारी निभाई है। जब तक शक्ति थी, उनकी विरासत को बिखरने से रोका। इस देश को समृद्धि के सबसे गौरवशाली लम्हेे दिए। घर औऱ परिवार को संभाला है।एक परिपूर्ण जीवन जिया है। मैंने अपना काम किया है। राजीव को जो वचन नही दिए, उनका भी निबाह मैंने किया है।


सरकारें आती जाती हैं। आपको लगता है कि अब इन हार जीत का मुझ पर फर्क पड़ता है। आपकी गालियां, विदेशी होने की तोहमत, बार बाला, जर्सी गाय, विधवा, स्मगलर, जासूस … इनका मुझे दुख होता है? किसी टीवी चैनल पर दी जा रही गालियों का दुख होता है, ट्विटर और फेसबुक पर अनर्गल ट्रेंड का दुख होता है?? नही, तरस जरूर आता है।


याद रखिये, जिससे प्रेम किया हो, उसकी लाश देखकर जो दुख होता है। इसके बाद दुख नही होता। मन पत्थर हो जाता है। मगर आपको मुझसे नफरत है, बेशक कीजिये। मैं आज ही लौट जाऊंगी। बस, राजीव लौटा दीजिए। और अगर नहीं लौटा सकते, तो शांति से, राजीव के आसपास, यहीं कहीं इसी मिट्टी में मिल जाने दीजिए। इस देश की बहू को इतना तो हक मिलना चाहिए शायद।


(सोनिया गांधी के पत्र का एक अंश!) The Unreal Realities से साभार

इस सवाल का जवाब मोदी को देना चाहिए…

 इस सवाल का जवाब मोदी को देना चाहिए…


सवाल यह नहीं है कि मोदी सरकार के आने के बाद हिंदू ख़तरे में है? और न ही सवाल मोदी सत्ता के रहते बारह लाख लोगों का इस देश की नागरिकता छोड़ देने का है? सवाल तो मोदी के उन लाड़लों का है जिन्हें देश के कर्णधार बनाये गये है लेकिन इन कर्णधारों का भविष्य इस देश में नहीं विदेश में जा बसे हैं।


आप सुनकर और जानकार हैरान हो जाएँगे कि भारत की सुरक्षा और विदेश नीति के शीर्ष निर्णय जिन हाथों से लिए जाते हैं, आज उन्हीं हाथों के उत्तराधिकारी इस देश से मुँह मोड़ चुके हैं। और उसके बाद यदि वे पद पर हैं तो इस देशभक्ति पर क्या संदेह नहीं करना चाहिए ?


NSA अजीत डोभाल — देश की सुरक्षा का चेहरा।

उनके बेटे विवेक डोभाल — अब ब्रिटिश नागरिक।


विदेश मंत्री एस. जयशंकर — भारत की वैश्विक नीति के शिल्पकार।

उनके बेटे ध्रुव जयशंकर — अब अमेरिकी नागरिक।


यह सिर्फ दो लोगों का  मामला नहीं है। यह दर्शाता है कि जिनके पास इस देश के भविष्य की कमान है, उनके अपने भविष्य इस देश से बाहर बँधे हैं।

यह विचारणीय नहीं, बल्कि खतरनाक है।

जब नीति-निर्माताओं की अगली पीढ़ी इस देश में नहीं, तो क्या उनकी नीतियाँ इस देश के भविष्य के प्रति समर्पित होंगी?

जब उनके बच्चे यहाँ के स्कूल, अस्पताल, सड़कों, प्रदूषण, बेरोज़गारी, सैनिकों की शहादत — किसी भी सच्चाई से नहीं जुड़ते, तो क्या वे नीतियाँ आम भारतीय के जीवन की सच्ची परछाईं होंगी?

क्या भारत अब ‘सेवा का स्थान’ मात्र रह गया है, और ‘जीवन का सपना’ कहीं और?

क्या यह देश नेतृत्व की प्रयोगशाला बनकर रह गया है, जहाँ नेता अपने बच्चों के लिए पश्चिमी जीवन की नींव डालते हैं?

यह सवाल अब सत्ता से नहीं — जनता से है।

क्या हम ऐसे नेतृत्व को आँख मूंदकर स्वीकारते रहेंगे, जिनका भावी वंश इस देश में साँस लेने तक को तैयार नहीं?

तब सबसे बड़ा सवाल है कि इन लोगों के द्वारा सिर्फ नागरिकता नहीं छोड़ी गई है, ये भरोसा छोड़ा गया है।

तब देश के प्रधान सेवक को जवाब देना चाहिए कि वे कैसा देश गढ़ रहे है जिनमे उनके ही विश्वास पात्रों को इस देश पर विश्वास नहीं?