गुरुवार, 27 जून 2024

भारतीय बच्चों की दशा पाक से भी ख़राब

 भारतीय बच्चों की दशा पाकिस्तानी बच्चों से भी ख़राब, ठीक से ख़ाना भी नसीब नहीं 

यूनिसेफ़ की ताज़ा रिपोर्ट में भारत के बच्चों कि जो स्थिति है वह निचले पायदान से आठवें नंबर है भारत से बेहतर पाकिस्तान नेपाल श्रीलंका और बंगलादेश की स्थिति है

भारत इस मामले में अफ़ग़ानिस्तान से थोड़ा ही बेहतर है  


एक तरफ़ जब देश के प्रधानमंत्री भारत को आर्थिक रूप से मज़बूत बनाने का दावा कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ भारत के चालीस फ़ीसदी बच्चों को पोषित आहार नहीं मिल पा रहा है। तब सवाल ये है कि क्या आर्थिक मज़बूती सिर्फ़ कारपोरेट प्रगति से गिनी जा रही है ।


 


यूनिसेफ़ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 20 साल पहले जब कुपोषण की बात की जाती थी तो सबसे पहले एक दुबले पतले कमजोर बच्चे की छवि दिमाग में आती थी, जिसे खाने के लिए भरपेट भोजन नहीं मिलता था, पर आज कुपोषित होने के मायने बदल रहे हैं । आज भी करोडो बच्चे कुपोषित हैं पर तस्वीर कुछ और ही है, यदि अफ्रीका को छोड़ दें तो आज सारी दुनिया में ऐसे बच्चों की संख्या कम हो रही है जिनकी वृद्धि अपनी आयु के मुकाबले कम है, जबकि आज ऐसे कुपोषित बच्चों की संख्या बढ़ रही है जिनका वजन बढ़ गया है और जो मोटापे की समस्या से ग्रस्त हैं । यूनिसेफ द्वारा जारी नई रिपोर्ट

 


'द स्टेट ऑफ द वर्ल्डस चिल्ड्रन 2019' के अनुसार, दुनिया में पांच साल से कम उम्र का हर तीसरा बच्चा या दूसरे शब्दों में 70 करोड़ बच्चे कुपोषण का शिकार है ।



बच्चों में बढ़ता मोटापा भी है गंभीर समस्या

सयुंक्त राष्ट्र द्वारा जारी इस रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि दुनिया के करोड़ों बच्चे को या तो जरूरत से बहुत कम खाना और पोषण मिल रहा हैं या फिर जितनी जरूरत है वो उससे अधिक मात्रा में भोजन ले रहे हैं, जो की स्पष्ट रूप से आर्थिक असमानता को दर्शाता है। यूनिसेफ के अनुसार बच्चों में पोषण की कमी का सीधा प्रभाव उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ता है । जिसमें दिमाग का पूर्ण विकास न हो पाना, कमजोर याददाश्त, रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी और संक्रमण एवं बीमारियों का खतरा मुख्य है। आंकड़ों के अनुसार वैश्विक रूप से वर्ष 2018 में पांच साल से कम आयु के 14.9 करोड़ बच्चे अविकसित पाए गए । जबकि लगभग पांच करोड़ बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर थे। अनुमान के विपरीत इनकी सबसे अधिक संख्या एशिया में देखने को मिली । इसके अलावा, पांच साल से कम आयु के 34 करोड़ बच्चों में जरूरी विटमिनों और खनिज पदार्थों की कमी पायी गयी । जबकि करीब चार करोड़ बच्चे मोटापे या ज्यादा वजन से पीड़ित पाए गए। बच्चे में अधिक वजन के चलते टाइप -2 डायबिटीज, अवसाद जैसी समस्याएं आम बात होती जा रही है वहीं आगे चलकर यह मोटापे में बदल सकती है जिससे रक्तचाप, डायबिटीज, शुगर, ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियां हो सकती है।

जरूरी विटमिनों और खनिज पदार्थों की कमी


यूनिसेफ की कार्यकारी निदेशक हेनरीटा फोर ने बताया कि बेहतर विकल्प न होने के कारण दुनिया भर में करोड़ों बच्चे ऐसा भोजन करने को मजबूर हैं जो उनका पेट तो भर सकता है, पर उन्हें पोषण नहीं दे सकता । वहीं दूसरी ओर बच्चों में जंक फ़ूड के प्रति बढ़ता लगाव भी एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है । आज बच्चे अपने भोजन में पोषक तत्वों के स्थान पर जंक फ़ूड को अधिक वरीयता दे रहे हैं और बचपन से ही संतुलित आहार नहीं ले रहे । आंकड़ों के अनुसार 6 से 23 महीने की उम्र के 44 फीसदी बच्चों को भोजन में फल या सब्जियां नहीं मिलती जबकि 59 फीसदी बच्चों दूध, दही, अंडे, मछली और मांस आदि नहीं मिल रहा । छह महीने से कम उम्र के 5 में से केवल 2 शिशुओं को अपनी मां का दूध मिल रहा है । जबकि वैश्विक स्तर पर डिब्बा बंद दूध की बिक्री 41 फीसदी बढ़ गयी है । जो साफ संकेत है की बच्चों को जरुरी स्तनपान नहीं कराया जा रहा । ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले गरीब परिवारों के 6 से 23 महीने की उम्र के केवल 5 में से 1 बच्चे को पोषित आहार नसीब हो सका । स्कूल जाने वाले बच्चों में फ़ास्ट फ़ूड के सेवन का चलन भी बढ़ता जा रहा है । आंकड़ों के अनुसार 42 फीसदी बच्चे दिन में कम से कम एक बार सॉफ्ट ड्रिंक्स (कार्बोनेटेड) का सेवन करते हैं, जबकि 46 फीसदी सप्ताह में कम से कम एक बार फास्ट फूड जरूर खाते हैं । यही वजह है जिसके चलते वैश्विक स्तर पर पांच साल से कम आयु के 34 करोड़ बच्चों में जरूरी विटमिनों और खनिज पदार्थों की कमी पायी गयी ।

कुपोषण, भारत के लिए भी है एक बड़ी समस्या

भारत में हालात और भी बदतर हैं जहां करीब 50 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं । जिसका परिणाम ने केवल उनके बचपन पर पड़ रहा है बल्कि उनका भविष्य भी अंधकारमय हो रहा है । हाल ही में पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, आईसीएमआर और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रेशन द्वारा भारत के सभी राज्यों में कुपोषण की स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी की थी । जिसके अनुसार वर्ष 2017 में देश में कम वजन वाले बच्चों के जन्म की दर 21.4 फीसदी रही। जबकि जिन बच्चों का विकास नहीं हो रहा है, उनकी संख्या 39.3 फीसदी, जल्दी थक जाने वाले बच्चों की संख्या 15.7 फीसदी, कम वजनी बच्चों की संख्या 32.7 फीसदी, अनीमिया पीड़ित बच्चों की संख्या 59.7 फीसदी और अपनी आयु से अधिक वजनी बच्चों की संख्या 11.5 फीसदी पाई गई थी। हालांकि पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत के कुल मामलों में 1990 के मुकाबले 2017 में कमी आई है। 1990 में यह दर 2336 प्रति एक लाख थी, जो 2017 में 801 पर पहुंच गई है, लेकिन कुपोषण से होने वाली मौतों के मामले में मामूली सा अंतर आया है।  1990 में यह दर 70.4 फीसदी थी, 2017 में जो 68.2 फीसदी ही पहुंच पाई। यह एक प्रमुख चिंता का विषय है, क्योंकि इससे पता चलता है कि कुपोषण का खतरा कम नहीं हुआ है।

स्पष्ट है कि हम इस समस्या को जितना समझ रहे है, यह उससे कई गुना बड़ी है । आज हमारी वरीयता सिर्फ बच्चों का पेट भरना न होकर उन्हें एक संतुलित और पोषित आहार देने की होनी चाहिए । जो न केवल राष्ट की जिम्मेदारी है बल्कि परिवार को भी इसमें अपनी भूमिका समझनी होगी ।

https://youtu.be/-jl05KaXTLg?si=EbKclnkAraOCIHaX

साय का संविदा प्रेम...

साय का संविदा प्रेम...


मुख्यमंत्री बनने से चूक गये अरूण साव अब उपमुख्यमंत्री बनने के बाद ऐसा कोई मौका छोड़‌ना नहीं चाहते जो एक मुख्यमंत्री के हिस्से में न आता हो।  भारी भरकम कई विभाग संभाल रहे अरुण साव के किस्से अब बाहर आने लगे हैं तो इनकी वजह उनका संघ प्रेम भी है लेकिन कहा जाता है कि संघ प्रेम के साथ साथ वे संविदा प्रेमी भी बन गये हैं।

हिंग लगे ने फिटकिरी और रंग चोखा की तर्ज पर चल  इस खेल में नियम कायदों को ताक में रखकर  सेवानिवृत कर्मचारियों और अधिकारियों को संविदा नियुक्ति देने की चर्चा है ओर चर्चा तो उन लोगों को संविदा देने की भी है जो लेन-देन में खूब विश्वास रखते हैं, लेकिन अरुण साव का संबंध आरएसएस से है इसलिए वे इसमें कितना माहिर है, समझा जा सकता है।

चुनाव के पहले प्रदेश अध्यक्ष बनकर उन्होंने जो भूमिका निभाई थी, अब उसकी भी परते उघड़‌ने लगी है और अब उपमुख्यमंत्री बनकर वे कितनी सावधानी बरत रहे हैं वह भी काम नहीं आ रहा है।

कहा जाता है कि असल में उनका मुख्यमंत्री नहीं बन पाने की बड़ी वजह वे खुद भी नहीं तलाश पाये हैं, रमन सिंह ओपी चौधरी से लेकर संघ के एक बड़े पदाधिकारी हो या संगठन का काम देखने. चुनाव के दौरान दिल्ली से भेजे गये लोग ।

लेकिन अब अरुण साव किसी को भी कोई मौका देना नहीं चाहते इसलिए वे फूंक फूंक कर कदम तो उठा रहे हैं लेकिन ख़ैर, खून, खाँसी ख़ुशी के साथ प्रेम भी कहां छिपता है।

विरासत सँभाले या खुद को…

 विरासत सँभाले या खुद को…


शुक्ल बंधुओं की राजनीति को आगे बढ़ाने में लगे अमितेष शुक्ल की स्थिति इन दिनों इतनी खराब है कि घर में भी उनकी बातें नहीं सुनी जाने की चर्चा आम हो गई है।

एक समय था जब चाचा विद्याचरण की तूती पूरे देश में बोलती थी तो श्यामाचान शुक्ल का अपना प्रभाव था और उसी प्रभाव के चलते वे जब पहली बार राजिम से विधायक बने तो इस विरासत  को आगे बढ़ाने  का दावा भी किया जा रहा था, बावजूद इसके कि उसमें खाने-खजुआने के अलावा और कोई विशेष गुण नहीं है।

राज्य बनने के बाद तो जिस ताह से अजीत जोगी ने राजनीति की, उसे समझ पानी में अमितेष इस कदर मुश्किल में पड़ गये कि चुनाव ही हार गये। दोहजार अट्ठारह के चुनाव में कांग्रेस की लहर की वजह से पचास हजार वोट से जीत हासिल कर अपने को फिर से तुर्मखां समझने लगे। लेकिन रोहित साहू से फिर वे मात खा गये।

ऐसे में अब प्रतिष्ठा बचाने की बात तो दूर अगले चुनाव में टिकिट भी मिल पायेगी कहना मुश्किल है, तब निष्ठावान कार्यकताओं ने भी पल्ला झाड़‌ना शुरु कर दिया है। इसकी दो तरह की चाय के अलावा भी दूसरी वजह की चर्चा भी खूब जमकर चल रही है।अब अमितेश के सामने दिक़्क़त सिर्फ़ खाने की ही नहीं, निकालने की भी है…!