मंगलवार, 27 मई 2025

संघ ने कराये बम धमाके…

 संघ ने कराये बम धमाके…


वैसे तो संघ को लेकर कितने ही सवाल है, सदस्यता, रजिस्ट्रेशन न होना, नफ़रत फैलाना, लेकिन संघ के प्रचारक रहे व्यक्ति यदि न्यायालय में शपथ पत्र के साथ बम की बात कहता है तो क्या उसकी सच्चाई सामने नहीं आना चाहिए। क्या है पूरा मामला…

2022 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के पूर्व प्रचारक यशवंत शिंदे ने एक हलफनामे और सार्वजनिक साक्षात्कारों के माध्यम से ऐसे गंभीर आरोप लगाए, जिनसे राजनीतिक और सामाजिक हलकों में हलचल मच गई। उन्होंने आरोप लगाया कि 2003 से 2008 के बीच महाराष्ट्र के कई हिस्सों में हुए बम धमाकों के पीछे संघ परिवार के वरिष्ठ नेताओं की साजिश थी, जिसका उद्देश्य मुस्लिम समुदाय को बदनाम करना और समाज में ध्रुवीकरण के ज़रिए भाजपा को राजनीतिक लाभ पहुंचाना था।

नांदेड की एक अदालत में शपथपत्र दाखिल करते हुए शिंदे ने बताया कि उन्हें और कुछ अन्य लोगों को आधुनिक हथियारों और बम बनाने की ट्रेनिंग दी गई थी। यह प्रशिक्षण कुछ मौजूदा और सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों तथा खुफिया एजेंसी के सदस्यों द्वारा दिया गया। उन्होंने कहा कि इन धमाकों को इस तरह अंजाम देने की योजना थी कि उनका दोष मुसलमानों पर डाला जा सके।

शिंदे ने अपने हलफनामे में विशेष रूप से महाराष्ट्र के जालना, परभणी, पूर्णा और नांदेड में हुए बम धमाकों का जिक्र किया। उन्होंने दावा किया कि इन घटनाओं में संघ परिवार के सदस्य शामिल थे, और वर्तमान RSS प्रमुख मोहन भागवत सहित कई वरिष्ठ नेताओं को इस साजिश की जानकारी थी या उन्होंने चेतावनियों को नजरअंदाज किया। शिंदे के अनुसार, उन्होंने कई बार RSS, विश्व हिंदू परिषद और भाजपा के शीर्ष नेताओं को इन घटनाओं के बारे में सूचित करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिला।

शिंदे के आरोपों को कुछ हद तक जांच एजेंसियों की रिपोर्टों और अदालत में दिए गए बयानों का समर्थन प्राप्त है। उदाहरण के लिए, 2006 के नांदेड धमाके में बजरंग दल के दो कार्यकर्ता बम बनाते समय मारे गए थे, और घटनास्थल से मुस्लिमों का भेष बनाकर हमले को उनके सिर मढ़ने की योजना के साक्ष्य मिले थे। इसी तरह, मालेगांव और अजमेर धमाकों की जांच में भी दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों की संलिप्तता सामने आई, और स्वामी असीमानंद जैसे आरोपियों ने अपने बयानों में माना कि इन हमलों के पीछे कुछ वरिष्ठ संघ नेता भी थे।

हालांकि, यह ध्यान देना आवश्यक है कि यशवंत शिंदे के दावे अभी तक न्यायिक रूप से पूरी तरह से सत्यापित नहीं हुए हैं। नांदेड मामले में उन्हें गवाह के रूप में शामिल करने की उनकी याचिका अदालत ने समय बीत जाने और प्रक्रियात्मक आधारों पर खारिज कर दी। केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) पर यह आरोप लगे हैं कि उन्होंने इन मामलों की जांच पूरी गंभीरता से नहीं की।

कुछ मामलों में NIA ने दक्षिणपंथी संगठनों की भूमिका को जांच में शामिल किया, लेकिन शिंदे द्वारा उठाए गए सभी बिंदुओं की पुष्टि एजेंसी की रिपोर्टों में सार्वजनिक रूप से नहीं हुई है।

यशवंत शिंदे का हलफनामा और उनके सार्वजनिक बयान एक ऐसे व्यक्ति का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, जो स्वयं संघ का हिस्सा रह चुका है और जिसने कथित साजिशों का प्रत्यक्ष अनुभव किया है। उनके आरोप उन चुनौतियों की ओर इशारा करते हैं, जो भारत में धार्मिक सहिष्णुता, न्यायिक पारदर्शिता और लोकतांत्रिक जवाबदेही के सामने खड़ी हैं।

उमेश नारायण सक्सेना के वॉल से…

चाचा नेहरू से लोकदेव तक…

 चाचा नेहरू से लोकदेव तक…

देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की कितनी ही यादें हैं, बच्चे उन्हें चाचा नेहरू कहते थे तो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उन्हें लोकदेव कहा । आज़ादी की लड़ाई में नौ साल तक जेल में रहे पंडित नेहरू को लेकर  भले ही समूची बीजेपी अपने राजनैतिक ध्येय के लिए विषवमन करती हो  पर सच नहीं बदलने वाला। कुछ यादें…


मुल्क बरसों की गुलामी से आजाद हो गया था.

नेहरू,सरदार पटेल और मौलाना आजाद के बंगले नज़दीक ही थे. उनकी ये रिवायत सी हो चली थी कि लगभग रोज़ाना शाम नेहरू, पटेल के घर खुद ड्राइव करके जाते और फिर दोनों मौलाना के घर पहुंचते. तीनों साथ बैठ के चाय पीते.

पटेल कोई काम पड़ने पर खुद नेहरू के घर जाते,बजाय फोन या फाइल भेजने के. नेहरू कहते  ऐसा क्यों करते हो. किसी को भेज दिया करो, पटेल मुस्कुराते हुए कहते कल से फोन करूंगा या किसी को भेजूंगा।

नेहरू कहते तुम और तुम्हारा कल....

दोनों हंस पड़ते. नेहरू और पटेल का आपसी प्यार अलग ही दर्जे का था। 

पटेल और नेहरू दोनों ही मौलाना का बहुत सम्मान करते थे. नेहरू हमेशा ही मौलाना को स्वयं फोन मिलाते थे। अगर मिलने की जरुरत हो, तो खुद उनके घर जाते थे. 

एक रोज़,किसी अहम मसले पर नेहरू जी को मौलाना से बात करनी थी। नेहरू ने पास खड़े सेक्रेटरी से कहा "मौलाना से बात कराओ"

फोन मिलाया गया.

"सर श्रीमान पीएम आपसे बात करेंगे"

नेहरू ने जैसे ही हैलो कहा, उधर से आवाज आई

" पंडित ,तुम्हारी उंगलियां दुख रहीं है क्या खुद फोन मिलाते हुए"

नेहरू हड़बड़ाते हुए शर्मिंदगी से बोले

"मौलाना साहब, माफ़ी , अगली बार ऐसी गुस्ताखी नही होगी". मौलाना ने कहा, ठीक है, कोई नहीं, अब बताएं, क्या हुआ.

उस शाम तीनों इस वाकए को याद कर खूब हंसे।

सियासत कभी ऐसी भी थी 

वो दौर शालीनता,सभ्यता का था

वो दौर नेहरू का था.........

एक और यादें…

पाकिस्तान के एक डिप्लोमेट थे हुसैन हक्कानी, 

  एक बार उन्होंने कहा था कि नेहरू 1949 में अमेरिका गए ,राष्ट्रपति   Trueman  से मिले। राष्ट्रपति ने पूछा बोलो अमेरिका भारत के लिए क्या कर सकता है ? नेहरू बोले हमें भारत को आधुनिक बनाना है। खेती को आधुनिक करना है। हमें भारत में भी मेस्चचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी जैसे संस्थान बनाने है। अमेरिकन राष्ट्रपति ने मदद का वादा किया था ।

कुछ दिनो बाद पाकिस्तान के प्रधान मंत्री लियाकत अली को अमेरिकन दौरे की दावत मिली। अमेरिकन राष्ट्रपति ने लियाकत  से पूछा -बोलो क्या मदद कर सकता हूं ? लियाकत ने जेब से एक लिस्ट निकाली और बताने लगे हमे असलाह ,गोल बारूद ,हथियार और सैनिक उपकरण दे दीजिये । अमेरिका ने दोनों देशो को उनकी मांग के मुताबिक मदद का वादा किया।

इससे समझ आता है  कि दोनो प्रधान मंत्रियो की प्राथमिकता क्या थी ?


एक युवा राष्ट्र के नेता होने के नाते वैसे भी नेहरू को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा छोड़ी गई समस्याओं का एक बड़ा हिस्सा विरासत में मिला था जबकि 1943 के बंगाल के अकाल ने देश के अन्न भंडारों को खाली कर दिया था।


द्वितीय विश्व युद्ध का वो दौर जबकि कोई भी क्षण ऐसा नहीं था कि जब परमाणु युद्ध की आशंका न बन रही हो, ऐसे समय में दुनिया को एक ऐसे मध्यस्थ या शांति दूत की जरूरत थी जो पूरे विश्व में एक कद्दावर वैश्विक नेता के रूप में पहचाना जाता हो और पूरब और पश्चिम की महान ताकतों की सनक या मनमानी को भी शांति और सहमति में परिवर्तित करवा सकता हो।

अन्यथा उसने अचानक ही जो विनाश की ताकत हासिल कर ली थी उसमें कोई भी किसी भी समय दुनिया को मानव जाति के अंतिम युद्ध में डुबो सकता था ।

 हमारा सौभाग्य था कि ऐसे समय में हमारे पास जवाहर थे, जी हां नेहरू में वह प्रतिभा, साहस और  बुद्धिमत्ता थी जो कि इस भूमिका को बखूबी निभा सकते थे।

यह साहस बस नेहरू ही कर सकते थे कि वह अमेरिका के राष्ट्रपति और फिदेल कास्त्रो दोनों से एक ही समय में दोस्ती निभा सकते थे। हालांकि ये बात संदिग्ध है पर वो नेहरु ही हो सकते थे जो कि अंतरराष्ट्रीय हितों की इतनी समझ रखते थे कि सुरक्षा परिषद की स्थाई सीट खुद न लेकर चीन को दिलवा सकते थे।

अगर जॉन एफ कैनेडी सभी प्रोटोकॉल तोड़कर नेहरु को रिसीव करने विमान के अंदर पहुंच जाते थे या निकिता खुश्चेव तिब्बत से दलाई-लामा को खदेड़ने के लिए चीन को पूरी तरह जिम्मेदार ठहराकर नेहरु से गलबहियां कर लेते थे तो आखिर उस नेहरु में ऐसा क्या था ?

कि मुसोलिनी जैसा तानाशाह जो कि रवींद्र नाथ टैगोर और गांधी से मिलकर अपना सीना चौड़ा करता था लेकिन नेहरु उससे मिलने के आमंत्रण को भी ठुकरा सकते थे ।


सैकड़ो साल की गुलामी के बाद इस देश को जिस अवस्था में नेहरू ने पाया था अगले 17 सालों में उन्होंने इसे दुनिया के प्रमुख देशों की बराबरी में खड़ा कर दिया।


व्यापक परमाणु परीक्षण संधि जिसे सीटीबीटी ( Comprehensive Nuclear test Ban Treaty)कहते हैं उस पर आज भले ही भारत हस्ताक्षर न कर रहा हो पर उदारमना नेहरु ने इसकी जरूरत सन 1963 में ही समझ ली थी। नेहरु ने विश्व के समक्ष सीमित परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि एलटीबीटी का प्रस्ताव रखा था।जिसके अंतर्गत विश्व में परमाणु परीक्षण वायुमंडल, बाहरी अंतरिक्ष और पानी के नीचे करने के लिए प्रतिबंध लगा दिए गए।

  लेकिन उनके बाद आजतक कोई और नहीं हुआ जो कि भूमिगत परीक्षणों पर प्रतिबंध लगा सके।


जिस समय दुनिया दो प्रमुख शक्तियों के गुट में बंट रही थी जिसमें एक गुट सोवियत समर्थक समाजवादी  था और दूसरा गुट पूंजीवादी देशों का समूह अमेरिका समर्थक । जिसमें नाटो के कई देश भी थे उस समय जवाहरलाल नेहरू ने  दुनिया के कुछ प्रमुख देशों को लेकर जिसमें प्रमुख यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप ब्रोज टीटो थी और मिस्र  के राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासिर घाना के राष्ट्रपति क्वामे नक्रूमा और इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो गुटनिरपेक्ष आंदोलन की शुरुआत की ।

 

गुटनिरपेक्ष आंदोलन ( NAM) The Non_Aligned Movement

 राष्ट्रों की एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय संस्था थी जिसके अनुसार वे दुनिया में किसी भी पावर ब्लॉक के साथ या विरोध में नहीं रहेंगे इसआंदोलन की स्थापना अप्रैल 1961 में हुई और 2012 तक इसमें दुनिया के 120 सदस्य देश थे ।

   इस संगठन का उद्देश्य गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के राष्ट्रीय स्वतंत्रता,सार्वभौमिकता ,क्षेत्रीय एकता और सुरक्षा में उनके साम्राज्यवाद औपनिवेशिक वाद, जातिवाद, रंग भेद और विदेशी आक्रमण या  अधिकरण हस्तक्षेप आदि के मामलों के विरुद्ध उनके युद्ध के दौरान सुनिश्चित करना है। आज  यह संगठन संयुक्त राष्ट्र के कुल सदस्य देशों की संख्या का दो तिहाई और विश्व की लगभग 55% जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है।


तो अब अगली बार यदि कोई आपसे पूछता है कि गांधी ने नेहरू को प्रधानमन्त्री क्यों चुना ?

  तो आप बस इतना कह सकते हैं कि किसी देश के प्रधानमंत्री को न सिर्फ घरेलू मुद्दे बल्कि इससे अधिक अंतराष्ट्रीय मुद्दों की समझ होनी चाहिए। ये बात गांधी जी  खूब समझते थे। और देश के शुरुआती तीन आम चुनावों में नेहरु की जीत भी ये बताती है कि वे जनता के बीच कितने लोकप्रिय थे।