सोमवार, 17 जून 2024

बोया पेड़ बबूल का...

 


यह तो बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय की कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना प्रदेश में सबसे ज्यादा वोट से जीतकर विधायक बनने वाले मोहन सेठ को विधायकी से इस्तीफ़ा देना नहीं पड़ता ।

दरअसल जमीन घोटाले से लेकर भ्रष्टाचार के कई तरह के आरोपों से घिरे मोहन सेठ की उल्टी गिनती तो उसी दिन शुरू हो गई थी जिस दिन नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली की, लेकिन सेठगिरी के दम पर राजनीति को साधने में माहिर मोहन सेठ इसलिए बचे रहे क्योंकि पिछली बार विधानसमर में भाजपा हार गई और अब जब भाजपा की प्रदेश में सरकार बन गई तो उन्हें सत्ता से किनारे करने  सांसद का  टिकिट  दे दिया गया ।

कैसे कहते भी हैं कि नरेद्र मोदी अपने विरोधियों को आसानी से छोड़ते नहीं है फिर टेबल के नीचे छिपने  जैसी  स्थिति पैदा करने वाले को वे कैसे छोड़ते ! 

इसलिए  मोहन सेठ को राजनीतिक चाल से ही पीटा गया । मोहन सेठ खून का आँसू बहाकर रह गये ।अभी विधायकी गई है कुछ दिनों में मंत्री पद भी चला जायेगा फिर रह जायेगी सांसदी ।



ऐसे में अब मोहन सेठ की राजनीति का क्या होगा, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है और शायद यही वजह है कि अब मोहन सेठ बंगले में सबसे ज्यादा गूंज  किसी बात की है तो वह है रंगा-बिल्ला और रंगा- बिल्ला के प्रति सेठ के कार्यकर्ताओं का ग़ुस्सा देखते ही बनता है।

इधर इस बात की भी चर्चा है कि मौक़े  का फायदा उठाते हुए मुख्यमंत्री दफ़्तर ने भी मोहन सेठ के विभागों की सैकड़ों फाईले रोक रखी  है जिसमें तबादला - पदोन्नति की फाईल अधिक है। यानी मंत्री जितने भी रहे, काम कुछ होने वाला नहीं।


शारदा, तुम बहुत याद आओगे !

 शारदा, तुम बहुत याद आओगे !



पहली बार उससे मेरी मुलाकात बबलू (संजय शुग्ला) ने कराई थी, हंसता हुआ चेहरा, उस चेहरे पर जमाने की समझ और संघर्ष की माथे पर लकीर । और उसके बाद कब हम हो गये थे पता हो नहीं चला।  कैमरा उसने बाद में पकड़ा लेकिन जीवन को कैमरे की नजर से देखने का हूनर तो उसके • पास पहले से ही था।


क्या उसने हम तीन तिलगों से पहले जाने की सोच ली थी,कह नहीं सकता लेकिन दैनिक भास्कर की नौकरी छोड्‌ने के बाद वह बहुत कुछ कर लेना चाहता था, अपने नहीं हम सबके लिए। लेकिन अचानक वह हम सबके बीच से चला गया |

बड़ा  मुन्नु यही तो नाम था उसका और वह यहाँ ही नहीं कहां हम सबने पहले जाकर बड़ा हो गया।

बड़ा मुन्नु यानी शार‌दा दत्त त्रिपाठी के अस्पताल में भर्ती  की खबर जब आई तो यह सोचा ही नहीं कि वह उसका अंतिम सफ़र का आख़री ठहराव है।

किसी की याद कितनी दूर तक स्मृति में पीछे की ओर जाती है, यह अहसास का नाम ही शारदा है।उसका साथ, उसका हँसाना , सब कुछ आँखों के सामने है, अरसा पहले अपने कहा था, नौकरी के चक्कर में बहुत कुछ छूटता जा रहा है। शायद हम पहले की तरह मिल नहीं पाते थे और यह अहसास उसे भी था।लेकिन  होठों पर मुस्कान, हाथों में कैमरा लिए शारदा को देखकर भी कोई नहीं कह सकता था कि वह भीतर ही भीतर टूट रहा है, कुछ या बहुत कुछ करने की चाह को मन में दबा रखा  है।

मुझे अब भी याद है अमृत संदेश में हम रिर्पोटिंग के लिए रवान (बलौदाबाजार) गये थे, सीमेंट कारख़ानों  की मनमानी की ऐसी तस्वीर उसने खिंच ली थी कि तस्वीर ही बोलने लगी थी, शब्द की ज़रूरत ही नहीं। ऐसी ही एक तस्वीर  शहर में हुत्तों के आतंक की उसने खिंची थी। जो उसने अपने  कैमरे से निकाले थे। सब आँखों के सामने तैरने लगे हैं।

कई बार तो तय करना मुश्किल होता था कि किस तस्वीर का इस्तेमाल खबर में करें।

भास्कर छोड़ने  के बाद उसने कहा था , वह प्रोफेशनल फोटोग्राफी करेगा। वह अपना मुक़ाम ख़ुद  हासिल करने का माद्‌दा रखता था । 

ऐसे में साहिर लुधियानवी का वह शेर खूब याद आता…

ले दे के अपने पास फक्त इक नज़र तो है !

क्यूँ देखें ज़िंदगी  को किसी की नजर से हम !!

हो सकता कि शार‌दा ने  मानवीय कमजोरियों को कभी न छुपाया हो, लेकिन कमजोरियों में भी प्रेम था, बिल्कुल निश्चल मित्र-प्रेम । कपट तो उसने कभी जाना ही नहीं और तकलीफों के दिनों में भी हसता रहा, बेहद, सहज, सरल रूप से मिलता, इसलिए भी वह हर किसी का अज़ीज़ हो जाता।

वह जब भी मिलता बाहे फैला देता, गले लगाने के लिए…

उस बाँह का अहसास अब भी अपनी पीठ पर महसूस कर सकता हूँ…