फ़र्ज़ी वोटर के सहारे देश लूटने की चाल और हिटलर…
पिछले दिनों हेमंत मालवीय और अजीत अंजुम के साथ जो कुछ हुआ वह साधारण घटना नहीं थी, लेकिन ये घटना हिटलर के शासन की याद को फिर से ताज़ा इसलिए कर दिया क्योंकि तब भी लोग राष्ट्रवाद की पट्टी बांधे उस अत्याचार पर ख़ामोश थे जिस तरह से आज धर्म की पट्टी बांध कर अत्याचार से मुँह मोड़े हुए है, अब तो हद हो गई कि जनता सरकार चुनने कि बजाय सरकार वोटर चुनने लगी है…
हिटलर के कुछ सच पर प्रकाश डाले उससे पहले बता दूँ कि भारत इस वक़्त बहुत बड़ी साज़िश में फंस चुका है। दो उद्योगपति और दो गुजराती नेता, इन चार लोगों ने मिलकर पूरे देश पर शिकंजा कस रखा है। हालांकि मैं यह मानता हूं कि राजनीति पब्लिक के सामने समस्या बताने से ज़्यादा, समस्या का निराकरण करना होती है।
आज राहुल जी या कांग्रेस, कितने भी बड़े कांड का खुलासा कर दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। आज जरूरत है कि बीजेपी की कारस्तानियों को पकड़ने के बाद उन्हें पब्लिक करने की जगह उनसे फाइट की जाए। गोपनीयता बनाई राखी जाए, हर मोर्चे पर भाजपा को पटखनी दी जाए। भारतीय जनता सोल्यूशन और रिजल्ट ओरिएंटेड हो चुकी है।
एक वक्त था जब जनता वोट देकर सरकार चुनती थी, अब हालात ये हैं कि आज सरकार वोटर चुन रही है। राहुल गांधी जी ने संसद के बाहर कल जिस बड़े खेल के विषय में पत्रकारों को बताया वो उनकी आई टी टीम द्वारा सालभर की गई मेहनत के बाद का निष्कर्ष है।
बीते वर्षों में ईवीएम मशीन पर खूब बवाल मचा था, भाजपा विरोधी लोग कांग्रेस पर आरोप लगा रहे थे कि ये खुलकर ईवीएम के खिलाफ नहीं बोल रहे, देश में बड़ा आंदोलन नहीं कर रहे। कल राहुल जी के बयान के बाद बेहद स्पष्ट हो गया है कि तब बड़े स्तर पर विरोध क्यों न हुआ।
क्योंकि राहुल जी की टीम के हाथ कुछ पुख्ता लग चुका था। कर्नाटक में वोटरलिस्ट को पूरी तरह से डिजिटल किया गया जिसमें 6 महीने लग गए और इसके उपरांत जब इसका डेटा एनालिसिस हुआ तब बीजेपी का सारा खेल सामने आ गया। नेक्स्ट लेवल फर्जी वोटिंग का गेम।
हो सकता है कि भाजपा के इस फर्जीवाड़े ईवीएम एक फैक्टर हो, लेकिन अब यह तय है कि यह एकमात्र फैक्टर नहीं। जिस ख़तरनाक खेल का ख़ुलासा हुआ हैं वो भारतीय सोच भी नहीं सकते। महाराष्ट्र, बिहार छोड़िए, कर्नाटक चुनाव में अभी 2 साल का वक़्त है और कर्नाटक में भी फ़र्ज़ी वोटर डाले जा रहे हैं। फ़र्ज़ी वोटर से सरकारें बना कर भारत को लूटा जा रहा है।
तब राहुल के खुलासे का असर इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि यह बिलकुल हिटलर की रणनीति की तरह है । अमिता नीरव ने एक बार लिखा था… 1942 में फेलिक्स की उम्र इक्कीस के आसपास रही होगी। उस वक्त तक हिटलर यूथ का हिस्सा होना हर जर्मन युवा के लिए अनिवार्य था तो फेलिक्स भी उसका हिस्सा था। हिटलर उसका हीरो था। वह मानता था कि जर्मनी को फिर से उसका पुराना गौरव सिर्फ हिटलर ही दिला सकता है और हिटलर भगवान की तरह हैं। वह जर्मनों के सारे संताप मिटा देगा।
उस वक्त यहूदियों और विरोधियों के साथ जो कुछ हिटलर कर रहा था, कंस्न्ट्रेशन कैंप्स और उन कैंप्स में जो कुछ हो रहा था, उसकी कहानियाँ बहुत छन-छनकर, बहुत ही फिल्टर होकर आना शुरू तो हो गई थी। मगर ये समझ नहीं आ रहा था इसमें कितनी सच्चाई है और कितनी गहराई है, क्योंकि इन कहानियो के स्रोत अपुष्ट थे।
फेलिक्स को इनमें से किसी भी बात पर यकीन नहीं था। तब भी नहीं जब हिटलर ने आत्महत्या कर ली। हिटलर की आत्महत्या और उसके बाद के दो-तीन महीनों तक फेलिक्स उदास रहा और उसे एलायड फोर्सेस को लेकर गहरा गुस्सा रहा। जब अलायड फोर्सेस ने जर्मनी औऱ आसपास के कंसंट्रेशन कैंप्स की सच्चाई बयान करना शुरू किया तो फेलिक्स को ये हिटलर के खिलाफ दुष्प्रचार लगा।
बाद में अमेरिकी सेनाओ ने जर्मन नागरिको को जबरन म्यूनिख के पास 1933 में बनाए गए पहले कंसंट्रेशन कैंप डाखाऊ और वीमर शहर के आसपास बसाए गए और कई दूसरे नाज़ी कैंप्स ले जाया गया, ताकि जर्मन नागरिक यह देख सके कि वे इतने वक्त से जिस हिटलर को भगवान मान कर पूज रहे थे, उसने असल में क्या किया?
उन नागरिकों में फेलिक्स भी एक था। जब वह डाखाऊ पहुँचा औऱ वहाँ के हालात देखे तो वह बुरी तरह से डिस्टर्ब हो गया। कई साल उसकी थैरेपी चली औऱ अंत में उसने आत्महत्या कर ली।
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यूँ हर तरह की सत्ताएँ अपने विरोधियों को कुचलती रही हैं। इससे कोई पार्टी, कोई विचारधारा नहीं बची है। मगर पिछले कुछ सालों से हमारे यहाँ ये प्रवृत्ति इतनी तेजी से बढ़ रही है कि यदि कोई आलोचना न करे, लेकिन विपक्षी की तारीफ भी कर दे तो उसके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है।
मामला सिर्फ राजनीतिक होता तब भी दिक्कत तो थी, मगर दिक्कत तब और बढ़ जाती है, जब वे दमन की प्रवृत्ति धार्मिक और सांस्कृतिक मामलों पर भी होने लगे। सोशल मीडिया ट्रोलिंग, धमकियाँ, बहिष्कार आदि-आदि से अब हम बहुत आगे आ गए हैं।
पिछले दिनों हेमंत मालवीय और अजित अंजुमजी के खिलाफ जो कुछ हुआ, वह ताजा उदाहरण हैं। इससे पहले से भी यह होता ही आ रहा है। हर आलोचनात्मक आवाज, हर असहमति, हर प्रश्न को जैसे सत्ता कुचलने को आतुर है।
इतना विराट जनसमर्थन और इतने नंबर्स, एक प्रशिक्षित ट्रोल आर्मी, प्रोफेशनल आईटी सेल, जमीन पर सन्नद्ध मदर ऑर्गेनाइजेशन के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता, चौबीस घंटे चलने वाले मीडिया चैनल्स, अखबार... स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटीज के शिक्षक, पत्रकार, फिल्मकार, साहित्यकार, कलाकार और बुद्धिजीवी, व्हाट्सएप ग्रुप्स, रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी औऱ गृहस्थ महिलाएँ... सब मिलकर भी सरकार की असुरक्षा दूर नहीं कर पा रही है। ये बात बहुत चौंकाती हैं।
पिछले कुछ वक्त से फासिज्म, हिटलर और उसके वक्त के जर्मनी को समझने की कोशिश कर रही हूँ। समझा कि टोटेलिटेरियन स्टेट असल में हर तरह के हथकंडों से अपनी सत्ता को बनाए रखने औऱ लगातार ताकत बढ़ाते चले जाने के लक्ष्य पर काम करती है।
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हिटलर ने पहला कंसंट्रेशन कैंप 1933 में डाखाऊ में बनाया था और प्रारंभिक तौर पर उसमें विरोधियों और आलोचकों को ही रखा गया था। असल में ताकत की भूख और असुरक्षा का बहुत गहरा संबंध होता है। जब सत्ता दावों की खोखली नींव पर खड़ी होती है, तब असुरक्षा गहरी होती है।
जानकार कहते हैं कि हिटलर ने जर्मन नागरिकों को विरोधियों और यहूदियों के खिलाफ मोबलाइज करने की कोशिश की थी। मगर उसमें उसे सफलता नहीं मिली। जर्मनी में सत्ता संभालते ही गोएबल्स को प्रपोगंडा मंत्री बनाया गया।
फिर सिलसिला शुरू हुआ कल्चरल डोमिनेंस का... राजनीति को नाटक का रूप दिया गया। जोशीले भाषण, समर्थन और दुष्प्रचार के लिए फिल्में जैसे 1935 में बनाई गई ट्रायम्फ ऑफ द विल, मीन कॉम्फ पर आधारित फिल्में और नाटक... कलाकारों औऱ बुद्धिजीवियों को हिटलर के समर्थन में लाने और काम करने के लिए दबाव औऱ प्रलोभन।
इसके लिए जर्मनी के प्रचार मंत्रालय ने नाजी शासन के लिए जरूरी माने जाने वाले कलाकारों औऱ बुद्धिजीवियों की सूची बनाई जिसे ‘गोटबेग्नाडेटेन-लिस्टे’ (ईश्वर के आशीर्वाद की सूची) कहा गया। रीच के प्रचार मंत्रालय से युद्ध से छूट के लिए जो आधिकारिक पत्र मिला, उसमें 1,041 कलाकारों और बुद्धिजीवियों के नाम थे।
इसमें से ललित कला, साहित्य, संगीत, रंगमंच और वास्तुकाला के क्षेत्र की 378 हस्तियाँ गोटबेग्नाडेटन लिस्टे में शामिल थी। मतलब तमाम उपायों से नाजी नीतियों औऱ हिटलर के समर्थन में दुष्प्रचार किया गया। उसका असर हुआ और इस असर का उदाहरण था, फैलिक्स... सिर्फ अकेला फैलिक्स नहीं, कई लोग उस दुष्प्रचार का शिकार हुए।
ये बात नागरिकों के लिए है, वे तमाम बुद्धिजीवी, पढ़े-लिखे प्रोफेशनल्स के लिए नहीं जो प्रत्यक्ष रूप से हिटलर की नीतियों के लिए काम करते रहे थे। उनके गुनाह तो क्षम्य ही नहीं थे। कुल मिलाकर एक ‘नाजी ईश्वर’ ने देश और दुनिया में तबाही मचा दी। ये कैसे हो पाया?
उस दुष्प्रचार से जो कई सालों तक अलग-अलग माध्यमों से चलता रहा।
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राजनीति को थियेटर का रूप देना असल में हर उस सत्ता के लिए जरूरी होता है, जिसने ताकत तो लोकतांत्रिक तरीके से पाई हो, मगर उसे बनाए रखने के लिए तमाम अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक तरीके इस्तेमाल करने पड़ रहे हैं।
पिछले कुछ सालों के हमारे सांस्कृतिक परिदृश्य पर नजर डालें, हमारी फिल्में, गाने, साहित्य, बुद्धइजीवी, कलाकार, लेखक, पत्रकार... और हिटलर के जर्मनी को जानें। चकित होना बहुत मामूली शब्द लगेगा।(साभार)