शनिवार, 2 अगस्त 2025

एक लाख की कंपनी दस साल में तीस करोड़ की कैसे हो गई

 एक लाख की कंपनी दस साल में तीस करोड़ की कैसे हो गई 

केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल की यह कहानी भी 


वैसे तो मोदी सरकार पर इलेक्ट्रोलर बॉण्ड के ज़रिए ही नहीं बड़े क़र्ज़दारों के बैंक लोन माफ़ कर चंदा वसूलने का आरोप लगता रहा है लेकिन आज हम पीयूष गोयल की वह चौंकाने वाली कहानी लेकर आये हैं जिसे सुनकर शायद आपके आँखों में बंधी पट्टी हट जाये…

नरेंद्र मोदी की सत्ता ने 2014 में कुर्सी कब्जाने के बाद से देश में फर्जीवाड़े से तिजोरी भरने का खुला खेल शुरू किया, लेकिन सिर्फ अपनों के लिए। 


आम जनता बिना भगवा ओढ़े यह काम नहीं कर सकती। 


ये कहानी मोदी के पीएम बनने से बहुत पहले, यानी 2005–06 से शुरू होती है। 


मोदी के कद्दावर मंत्री और पेशे से CA पीयूष गोयल ने अपनी पत्नी सीमा गोयल के साथ मिलकर 1 लाख रुपए की जमा पूंजी से एक कंपनी खोली। 


नाम रखा–इंटरकॉन एडवाइजर्स प्राइवेट लिमिटेड। 


गोयल 13 मई 2014 तक इसके डायरेक्टर रहे। फिर मोदी सत्ता के आते ही पद छोड़ दिया। 


1 लाख की पूंजी वाली इस कंपनी के 10 हजार शेयर्स थे–यानी 10 रुपए प्रति शेयर। 


गोयल के पद छोड़ते ही सीमा के पास 9999 शेयर आ गए। एक शेयर जेबखर्च के रूप में बेटे ध्रुव के नाम कर दिया गया। 


अब यहां से सारा खेल शुरू होता है। 


गोयल के मंत्री बनते ही इंटरकॉन की आय 10 साल (2005 से) में बढ़कर 30 करोड़ हो गई। 


इस 1 लाख के 30 करोड़ में (3000 %) बढ़ने की कहानी बहुत दिलचस्प है, क्योंकि इंटरकॉन ने आज तक कॉरपोरेट मंत्रालय को यह नहीं बताया कि कंपनी ने ऐसा कौन सा काम किया कि आय 30 करोड़ हो गई। 


इस लूट के खेल को यूं समझें। 


असल में, गोयल परिवार और दोस्तों–रिश्तेदारों का कुनबा 11 ऐसी कंपनियों से जुड़ा हुआ था, जिन्होंने बैंकों का लोन हड़पा। 


गोयल के मंत्री बनते ही कुछ कंपनियों का लोन माफ हुआ तो कुछ दीवालिया होकर बेदाग निकल गईं। 


इन्हीं में एक कंपनी थी शिरडी इंडस्ट्रीज। इस कंपनी ने 651 करोड़ का लोन लिया। नहीं चुकाया तो 2017 में 65% लोन माफ करवाया गया। 


एक और कंपनी असीस प्लाईवुड ने 458 करोड़ का लोन हड़पकर खुद को कंगाल घोषित करवा दिया। 


असीस इंडिया इंफ्रा पर भी 457 करोड़ का लोन था। असीस इंडस्ट्रीज को भी 258 करोड़ का लोन मिला। 


सारे लोन का अधिकांश हिस्सा माफ हुआ। दिलचस्प है कि शिरडी से लेकर असीस ग्रुप तक की कंपनियों का ईमेल bknath@asisindia.com ही था। यानी चारों घपलेबाज कंपनियां एक ही शख्स की थीं। 


इसी तरह की 11 कंपनियों के साथ गोयल परिवार के करीबी रिश्ते रहे और पीयूष बतौर केंद्रीय मंत्री उनके लिए काम करते रहे। 


इन सभी 11 कंपनियों में मोदी सत्ता के आते ही गोयल और उसके परिवार के बतौर निदेशक इस्तीफे तो हुए, लेकिन जिन नए लोगों को बदले में लाया गया, वे भी गोयल परिवार से जुड़े थे। 


इनमें राकेश अग्रवाल, मुकेश बंसल, अमित बंसल, मुकेश शाह और प्रशांत शेणॉय जैसे नाम हैं।


राकेश और मुकेश बंसल ने तो सरेआम कहा कि उनके पीयूष के परिवार से रिश्ते हैं। 


वहीं, पीयूष गोयल परिवार का दावा है कि इंटरकॉन का काम सिर्फ एडवाइस देना था। यानी कंपनी पैसा लेकर सलाह देती है। 


कैसी सलाह? जाहिर है लोन हड़पने की, दीवालिया होकर निकल लेने की, अपना लोन माफ करवा लेने की। 


फिर मंत्री बनकर पीयूष गोयल किस तरह इन 11 कंपनियों की मदद कर रहे थे?


सत्ता के रसूख में अपने दोस्तों का लोन माफ करवाना, उन्हें बच निकलने का रास्ता बताना। 


क्या यह हितों का टकराव नहीं है? याद रखे–पीयूष गोयल अभी भी केंद्रीय मंत्री है। 


लेकिन, न खाऊंगा, न खाने दूंगा का जुमला फेंककर देश को बरगलाने वाले नरेंद्र मोदी ने सब जानते हुए पीयूष की फाइल दबाकर रखी। 


कांग्रेस ने जब 2018 में इस मामले को उठाया तो इसी मोदी सत्ता ने झूठा बताकर हवा में उड़ा दिया। 


तब तक गोदी मीडिया भी बिक चुकी थी। 


आज भी किसी पत्रकार में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह इस मामले को दोबारा उठाने की हिम्मत कर सके।


अब यह साफ हो चुका है कि इसी मोदी सत्ता के मंत्री, संत्री, माननीयों ने किस तरह ऐसी करप्ट कंपनियों के लिए दलाली की और बैंकों से 14 लाख करोड़ के लोन माफ करवा दिए। 


अभी भी करीब 150 माननीय देश के लिए नहीं, कंपनियों के लिए काम करते हैं। 


नतीजा इंटरकॉन जैसी और भी कंपनियां खड़ी हो रही हैं और गरीब जनता के टैक्स का पैसा लूट रही हैं। 


देश को बचाने के लिए सिर्फ नरेंद्र मोदी का ही जाना जरूरी नहीं। 


उनके साथ देश की करप्ट सत्ता को भी अगले 200 साल तक उखाड़ फेंकना जरूरी है। (साभार)


वरना ऐसी सत्ता सैकड़ों पीयूष को पालती रहेगी।


Soumitra Roy

शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

ट्रंप कितना भी जुतियाये पर राहुल को कोई हक़ नहीं…

 ट्रंप कितना भी जुतियाये  पर राहुल को कोई हक़ नहीं…


क्या हो गया है बीजेपी को, क्या हो गया है मोदी सत्ता को, यह सवाल अब इसलिए बड़ा होने लगा है क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति लगातार मर्यादा लांघ भारत और प्रधानमंत्री का लगातार अपमान करते जा रहे है, यहाँ तक कि अब अर्थव्यवस्था को ही मृत कह दिया लेकिन पूरी बीजेपी चुप रही लेकिन जब पत्रकारों ने राहुल से ट्रंप के इस मृत अर्थव्यवस्था को लेकर सवाल पूछा तो राहुल ने जैसे ही इस पर हामी भरी पूरी बीजेपी राहुल पर पिल पड़ी, ऐसे में ट्रंप पर चुप्पी से उठते सवाल….

सवाल ये है कि_

ट्रंप ने जब भारत की अर्थव्यवस्था को मृत कह दिया,

तब पूरी मोदी/बीजेपी सरकार ने ट्रंप की निंदा क्यों नहीं की..? 


लेकिन प्रेस के पूछने पर जैसे ही

राहुल गांधी ने कहा_ हां सही कहा है कि 

मोदी/बीजेपी ने अपनी नीतियों से देश की अर्थव्यवस्था को मृत कर दिया है..


तो ट्रम्प पर चुप्पी और पूंछ दबाये 

बीजेपी के सांसदों ने राहुल पर हमला बोल दिया..


सवाल ये है कि जब ट्रम्प ने ये बात कही तब_

बीजेपी ने ऐसी बात कहने के लिये ट्रंप की आलोचना में कुछ भी क्यों नहीं कहा? 


बात केवल ट्रेड टैरिफ की नहीं है, 

सवाल इसका है कि ट्रंप भारत का नाम जिस संदर्भ में ले रहे हैं, उसे क्यों सहन किया जा रहा है? 

वे भारत की नीतियों का मज़ाक उड़ा रहे हैं, 

रुस से तेल खरीदने पर भारत पर जुर्माना लगा रहे हैं, 

भारत की कंपनियों पर प्रतिबंध लगा रहे हैं, 

क्या यह किसी भी तरह से मोदी के मित्र का व्यवहार है? 

राहुल पर बोलने वाला मोदी गैंग_ट्रम्प पर चुप क्यों है..??

क्या अंग्रेजी की गुलामी से पैंशन लेने‌ वाले मुखबिर क्या फिर से ट्रम्प को ईस्ट इंडिया बनाने की साजिश में मुंह में दही जमा लिये हैं..??

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

महाभियोग-दो जज, दो नीति…

महाभियोग-दो जज, दो नीति…


ग़ज़ब देश है और अजब सत्ता, वैसे भी यह बात घर कर गई है कि क़ानून सिर्फ़ कमज़ोर लोगो के लिये है , पैसा और पहुँच वालों ने क़ानून को किस तरह अपनी जूती का खाल बनाया है यह किसी से छिपा नहीं है , ऐसे में जज द्वय शेखर यादव और यशवंत वर्मा पर चलाये जाने वाले महाभियोग भी क्या पहुँच के आगे घुटने पर आ जाएगा…

दो जज साहिबान हैं जिन पर विपक्ष ने महाभियोग चलाने के लिए मुहीम चलाई है। एक जज हैं यशवंत वर्मा जी, जिन पर भ्रष्टाचार के मामले मे महाभियोग लगाने के लिए आवेदन किया गया है। दूसरे जज हैं शेखर यादव जी, जिन पर विश्व हिन्दू परिषद की सभा में नफ़रती बयान बाज़ी का आरोप है। 


अब सरकार जस्टिस वर्मा जी के विरूद्ध तो कार्रवाई करने की बात तो कर रही है लेकिन जस्टिस यादव जी के मामले में ख़ामोशी अख्तियार किये हुए है। इन दोनों जजों के विरूद्ध एकसाथ कार्रवाई की जानी चाहिए। 


कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने दिनांक 21-07-2025 को जस्टिस वर्मा के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए 63 राज्य सभा सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित आवेदन किया था। वहीं जस्टिस यादव के विरूद्ध 152 लोक सभा सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित आवेदन पत्र  दिया था।


जब पूर्व राज्यसभा के सभापति धनखड़ इन महाभियोग पत्र पर बोल रहे थे तब वह स्पष्ट रूप से कह रहे थे कि पर्याप्त संख्या में सदस्यों ने हस्ताक्षरित आवेदन पत्र लिखकर दिये हैं। पार्लियामेंट के एक्ट अनुसार यदि इस तरह से दो आवेदन पत्र दिए जाते हैं तो इसे दोनों सदनों में संयुक्त रूप से देखा जाएगा। इन दोनों आवेदन पत्रों को हाऊस की संपत्ति माना जायेगा।


लेकिन सरकार अब इन आवेदन पत्रों पर कार्रवाई करने से हिचकिचाहट दिखा रही है। इससे सरकार की दोमुंही नीति सामने आ रही है और वह विपक्ष के साथ सहयोग नहीं कर रही है।

बुधवार, 30 जुलाई 2025

मिडिल क्लास को ऐसी लताड़ पर चुप्पी क्यों…

 मिडिल क्लास को ऐसी लताड़ पर चुप्पी क्यों… 


वैसे तो मोदी सरकार के आने के बाद मिडिल क्लास की स्थिति को लेकर कितनी ही आलोचना होते रहती है लेकिन पिछले दिनों इक्विटी निवेशक बसंत माहेश्वरी ने ऐसी बात कर दी जिसे सुनकर न तो बीजेपी आईटी सेल को ग़ुस्सा आया न तो भक्तों की भावना ही आहत हुई, आख़िर कौन है ये बसंत माहेश्वरी जिसने सत्ता के मुँह में ताला जड़ दिया और उन्होंने क्या कहा…


◆ बसंत माहेश्वरी साहब, भारत के बड़े इन्वेस्टर, ने आज भारतीय मिडल क्लास को लताड़ दिया है..पहली बार किसी इन्वेस्टर ने मोदी को भी लताड़ा है..पूरी दुनिया में ट्वीट वायरल है..

TCS ने 12,000 एम्प्लॉईज़ को निकाल दिया..इस पर बसंत माहेश्वरी ने ट्वीट किया


~ अब इन 12,000 बेकारों को मंदिर मस्जिद पर ट्वीट करने के लिए वक़्त की कोई कमी नहीं रहेगी..


~ भारत का मिडल क्लास इसी लाइक़ रहा है..


~ मिडल क्लास ने मंदिर मस्जिद मांगा था..और उसे जो चाहिए था वही मिला है


◆ बसंत माहेश्वरी से सवाल पूछा गया कि मिडल क्लास किधर जा रहा है? जवाब दिया कि


 मिडल क्लास "अयोध्या" जा रहा है ✌️


● मुझ जैसे लाखों लोग जब मिडल क्लास के गिरते हालात पर लिखते थे तब हमें हिंदू विरोधी, देशद्रोही, पाकिस्तानी कहा गया था


● अब किसी में हिम्मत है तो बसंत माहेश्वरी को हिंदू विरोधी बोले..बसंत माहेश्वरी ने देश के नौजवानों और नफ़रती नेताओं को बीच सड़क खड़ा कर नंगा कर दिया है..बसंत माहेश्वरी, शुक्रिया💐

मुमकिन है कि बहुत जल्द बसंत माहेश्वरी पर IT, ED, CBI की रेड पड़ेगी..मगर सच नहीं बदलेगा..

अय्यर जी अपने वॉल में आगे लिखते हैं  मोदी, शाह और आदित्यनाथ और इस फ़र्ज़ी हिंदूवादी गैंग ने भारतीय मिडल क्लास को भिकारी बना दिया है..वापस लिखता हूँ कि इन विनाशकों से आज़ादी की लड़ाई लड़िए..वरना भारत बरबाद हो जाएगा..

बसंत माहेश्वरी को इक्विटी निवेश में दो दशकों से ज़्यादा का अनुभव है। वे एक कॉस्ट अकाउंटेंट हैं और सेंट जेवियर्स कॉलेज , कोलकाता से स्नातक हैं। वे सूचीबद्ध प्रतिभूतियों में निवेश करके अपनी आजीविका चलाते हैं।

पैंटालून रिटेल, टीवी18, टाइटन, पेज इंडस्ट्रीज और हॉकिन्स कुकर जैसे कई मल्टीबैगर शेयरों की पहचान करने का उनका अनुभव रहा है । यह पुस्तक उन रणनीतियों का एक प्रतिबिंब है जिनसे उन्हें पिछले कई वर्षों में बेहतर लाभ अर्जित करने में मदद मिली है। वह लोकप्रिय ऑनलाइन निवेश पोर्टल www.theequitydesk.com के संस्थापक भी हैं , जिस पर हर महीने भारत और विदेश से हज़ारों लोग आते हैं।

मंगलवार, 29 जुलाई 2025

जम्मू में 35 सिखों की हत्या का सच

 जम्मू में 35 सिखों की हत्या का सच…आ गया सामने 


उधर जब संसद में पहलगाम हमले को लेकर बहस चल रही थी तब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान २००० में हुए छत्तीसिंहपूरा हत्याकांड का सच झकझोर देने वाला है कि क्या ऐसा इस देश में हो सकता है… २१ मार्च २००० को हुई इस हत्याकांड का सच हर भारतीय को जानना चाहिए…


मीडिया विजिलमीडिया विजिल

ग्राउंड रिपोर्ट

मीडिया विजिल डेस्‍क


पूरे 18 साल पहले की बात है जब 20 मार्च सन् 2000 को अमेरिका के राष्‍ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा के समानांतर जम्‍मू और कश्‍मीर में अल्‍पसंख्‍यक सिख समुदाय के 35 लोगों की अनंतनाग जिले के छत्‍तीसिंहपुरा गांव में गोली मार कर हत्‍या कर दी गई थी। सेना ने दावा किया था कि यह काम ”पाकिस्‍तान समर्थित इस्‍लामिक कट्टर समूह लश्‍कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों का है”।


इस घटना के इतने बरस बाद तमाम ऐसे साक्ष्‍य सामने आ चुके हैं जो बताते हैं कि सेना का दावा गलत था। सिखों के साथ भारतीय राज्‍य द्वारा किए गए इस ऐतिहासिक विश्‍वासघात को याद किया जाना ज़रूरी है ताकि यह समझा जा सके कि लोकतांत्रिक कहलाने वाला एक राज्‍य कैसे काम करता है।


इंडिया टुडे में एक रिपोर्ट छपी जिसका शीर्षक था, ”आतंकवादियों ने कश्‍मीर घाटी में किया सिखों का पहला नरसंहार…”। पत्रिका ने दावा किया कि ”लश्‍कर-ए-तैयबा के विदेशी सदस्‍य जिन्‍होंने हत्‍याकांड को अंजाम दिया भारतीय फौज की वर्दी पहनकर आए थे जो फर्जी या चोरी की थी।” छत्‍तीसिंहपुरा के  बाद राष्‍ट्रीय राइफल्‍स से पांच ”विदेशी आतंकवादियों” को मार गिराने का दावा किया। ये लड़के बाद में स्‍थानीय निकले। इसे पाथरीबल फर्जी मुठभेड़ कांड के नाम से जाना जाता है।


इकनॉमिक टाइम्‍स की रिपोर्ट के मुताबिक सीबीआइ ने 2006 में राष्‍ट्रीय राइफल्‍स के पांच सदस्‍यों को कथित तौर पर पांच नागरिकों की हत्‍या का दोषी पाया, जिनमें तीन पर इलज़ाम लगाया गया था कि वे पाकिस्‍तानी आतंकवादी थे जिन्‍होंने छत्‍तीसिंहपुरा में 35 सिखों का कत्‍ल किया था। दो अन्‍य को अज्ञात आतंकवादी बताया गया था।


इस जांच का हिस्‍सा रहे अवकाश प्राप्‍त लेफ्टिनेंट जनरल केएस गिल ने 2017 में सिख न्‍यूज़ एक्‍सप्रेस को दिए एक इंटरव्‍यू में पत्रकार जसनीत सिंह को बताया कि छत्‍तीसिंहपुरा हत्‍याकांड में सीधे भारतीय सेना का हाथ था और इस बारे में रिपोर्ट तत्‍कालीन एनडीए सरकार के गृहमंत्री एल.के. आडवाणी को सौंपी गई थी।


आखिर क्‍या वजह थी सिखों को मारने की? शाहनवाज़ आलम अपने लेख ”नेशनल इंटरेस्‍ट, फिफ्थ कॉलम एंड दि रोमांटिक किलर्स” में लिखते हैं- ”पहला, अंतरराष्‍ट्रीय मंचों पर पाकिस्‍तान के ऊपर बढ़त बनाना। दूसरा, प्रवासी सिखों की सहानुभूति बटोरना जो खालिस्‍तान के दिनों से ही भारत की सरकारों के विरोधी रहे हैं। तीसरा, क्षेत्र में परमाणु प्रसार की भारत की कोशिशों पर अमेरिका द्वारा चिंता जताए जाने को आंशिक तौर पर भटकाना।” वे लिखते हैं कि स्‍वदेशी के मोर्चे पर यह इस हत्‍याकांड का इस्‍तेमाल सिखों को घाटी छोड़कर जाने में उकसाने के लिए किया गया, ठीक वैसे ही जैसा जगमोहन ने हिंदुओं के साथ किया था।


अमेरिकी राष्‍ट्रपति बिल क्लिंटन की यात्रा से ठीक एक दिन पहले 20 मार्च, 2000 को हुए इस हत्‍याकांड पर रिपोर्ट करते हुए फ्रंटलाइन ने लोगों के हवाले से लिखा कि, ”उन्‍होंने जैसे ही गोली चलानी शुरू की, बंदूकधारी जय माता दी और जय हिंद के नारे लगाने लगे। बिलकुल नाटकीय अंदाज़ में उनमें से एक शख्‍स हत्‍याओं के बीच ही रम की बोतल से घूंट मारता रहा। जाते वक्‍त एक ने अपने साथी से कहा- गोपाल, चलो हमारे साथ।”


दिलचस्‍प है कि इस हत्‍याकांड के रहस्‍य का पहला परदाफाश खुद क्लिंटन ने मेडलीन अलब्राइट की किताब ”दि माइटी एंड दि ऑलमाइटी: रिॅ्लेक्‍शंस ऑन अमेरिका, गॉड एंड वर्ल्‍ड अफेयर्स” के फोरवर्ड में किया:


”2000 में भारत के अपने दौरे के दौरान कुछ हिंदू आतंकवादियों ने 38 सिखों की हत्‍या कर दी। अगर मैंने वह यात्रा नहीं की होती तो मारे गए लोग शायद अब भी जिंदा रहते। अगर मैंने इस डर से यात्रा न की होती कि पता नहीं धार्मिक चरमपंथी क्‍या करेंगे, तो अमेरिका के राष्‍ट्रपति के बतौर मैं अपना काम नहीं कर रहा होता।”


हिंदुत्‍ववादी ताकतों के हो हल्‍ले के बाद प्रकाशक को फोरवर्ड का यह हिस्‍सा हटाना पड़ गया था लेकिन क्लिंटन ने वही लिखा था जो वह मानते थे। इसकी पुष्टि बाद में स्‍ट्रोब टालबोट ने अपनी पुस्‍तक ”इंगेजिंग इंडिया: डिप्‍लोमेसी, डेमोक्रेसी एंड दि बॉम्‍ब” में की जब उन्‍होंने क्लिंटन के बारे में लिखा:


”उन्‍होंने इस आरोप को समर्थन नहीं दिया कि पाकिस्‍तान उस हिंसा के पीछे था…।”


इतना ही नहीं, पाथरीबल में जो मुठभेड़ सेना ने छत्‍तीसिंहपुरा के दोषियों की बताई थी और पांच युवकों को मार गिराया था वह बाद में फर्जी साबित हुई। मोहम्‍मद सुहैल और वसीम अहमद नाम के दो पाकिस्‍तानियों को दिसंबर 2000 में छत्‍तीसिंहपुरा का ”मास्‍टरमाइंड” बताकर पकड़ा गया था, वे बाद में निर्दोष बरी हो गए। फिर सवाल उठता है कि छत्‍तीसिंहपुरा के सिखों का कत्‍लेआम किसने किया?


फ्रंटलाइन के अनुसार: ”31 अक्‍टूबर 2000 को जम्‍मू कश्‍मीर के मुख्‍यमंत्री फ़ारुख अब्‍दुल्‍ला ने एलान किया कि सुप्रीम कोर्ट के अवकाश प्राप्‍त जज एस. रत्‍नवेल पांडियन से हत्‍याकांड की जांच के लिए कहा जाएगा। जब पूछा गया कि क्‍या उन्‍होंने इस जांच के लिए क्‍या दिल्‍ली की मंजूरी ली है, तो उन्‍होंने ज़ोर देकर कहा कि उन्‍हें ऐसी किसी मंजूरी की दरकार नहीं है। अचानक चीजें बदल गईं। केवल एक पखवाड़ा बीता और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से उनकी एक मुलाकात हुई और बाद में छत्‍तीसिंहपुरा हत्‍याकांड की जांच को खत्‍म कर दिया गया… दिल्‍ली में अफसरों का कहना है कि केंद्र सरकार छत्‍तीसिंहपुरा हत्‍साकांड की जांच के निर्णय पर नाराज़ थी। कहते हैं कि वाजपेयी ने मुख्‍यमंत्री को कहा था कि उनके इस फैसले ने केंद्र सरकार को शर्मिंदा किया है।”


आज 18 साल बाद छत्‍तीसिंहपुरा हत्‍याकांड और पाथरीबल फर्जी मुठभेड़ के बारे में जानना-समझना भारतीय राज्‍य के चरित्र को समझने के लिए बहुत आवश्‍यक है। लेफ्टिनेंट जनरल केएस गिल का सिख न्‍यूज़ एक्‍सप्रेस को दिया यह साक्षात्‍कार ज़रूर देखें। 30 मिनट 18 सेकेंड पर आपको छत्तीसिंहपुरा हत्याकांड से संबंधित सवाल जवाब मिल जाएँगे। अगर इस बातचीत को पढ़ना हो तो यहाँ क्लिक करें। फ्री प्रेस कश्मीर ने 20 मार्च यानी इस हत्याकांड की बरसी पर छापा है।(साभार)

सोमवार, 28 जुलाई 2025

हिन्दी सिनेमा की आख़री ब्लेक एंड व्हाईट फ़िल्म

 हिन्दी सिनेमा की आख़री ब्लेक एंड व्हाईट फ़िल्म 


क्या आप जानते हैं हिन्दी सिनेमा की आख़री ब्लेक एंड व्हाइट फ़िल्म कौन सी थी, सुपर डुपर इस फ़िल्म को फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार तो मिला ही इसके गीत आज भी लोग गुनगुनाते नहीं थकते…

यह फ़िल्म गुजराती भाषा के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है जिसे गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी ने लिखा था जो बीसवीं सदी के शुरुआती काल के प्रसिद्ध गुजराती लेखक थे। इस फ़िल्म को उत्कृष्ट छायांकन और उत्कृष्ट संगीत के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिले थे।[

फ़िल्म की कहानी…

सरस्वती (मनीष) उसकी सौतेली माँ द्वारा उदासीनता के साथ पाला जाता है और फिर भी वह एक उदार व्यक्ति के रूप में बड़ा होता है। उसके अपने विचार हैं जो वह अपने पिता के साथ बांटता नहीं है। उसके पिता उसकी शादी एक अमीर परिवार की पढ़ी-लिखी लड़की कुमुद (नूतन) के साथ तय कर देते हैं, लेकिन क्रान्तिकारी सरस्वती इस रिश्ते को मंज़ूर नहीं करता है। फिर भी वह कुमुद को चिट्ठी लिखता है और उस ज़माने की रीतियों के विपरीत कुमुद से मिलने चला जाता है। वहाँ उनका प्रेम परवान चढ़ता है और दोनों मंगेतर एक दूसरे के आशिक़ हो जाते हैं। लेकिन तक़दीर को कुछ और ही मंज़ूर है। कुमुद की शादी रमेश देव से हो जाती है जोकि एक बिगड़ा शराबी अमीर आदमी है, वो कुमुद को बहुत तंग करता है उसके वेशया के साथ संबंद है। एक बार एक झगड़े मे उसके साथों खून हो जाता है और उसकी मौत हो जाती है । कुमुद अपने देवर का लालन पोषण करने की ठान लेती है । सरस्वती जोकि अब सन्यासी बनने की तैयारी कर रहा है तब कुमुद उसे समझती है की सन्यासी बनना ठीक नहीं है एक उसके लिए और फिर उसकी बात मान कर सरस्वती कुमुद की छोटी बहन से शादी कर लेता है ।

अब तो आप समझ ही चुके होंगे कि यह फ़िल्म थी सरस्वती चंद्र।

१९६८ में बनी एक काली-सफ़ेद चलचित्र है। इसे गोविन्द सरैया ने निदेशित किया है और इसके मुख्य कलाकार हैं नूतन और मनीष। 

फ़िल्म के गीत लिखे थे इंदीवर और संगीत कल्याण जी आनंद जी ने दिये थे।

गीत

चन्दन सा बदनमुकेश
चन्दन सा बदनलता मंगेशकर
छोड़ दे सारी दुनियालता मंगेशकर
हमने अपना सब कुछ खोयामुकेश
फूल तुम्हें भेजा है ख़त मेंलता मंगेशकर, मुकेश
ओ मैं तो भूल चली बाबुल का देसलता मंगेशकर


रविवार, 27 जुलाई 2025

अहमदाबाद प्लेन क्रैश साज़िश…

 अहमदाबाद प्लेन क्रैश साज़िश…


अहमदाबाद में हुई हवाई जहाज़ दुर्घटना क्या किसी की साज़िश थी, इस खेल में कौन शामिल है, प्रारंभिक रिपोर्ट का सामने आना भी क्या षड्यंत्र का हिस्सा है , ऐसे कई सवालों के जवाब इंटरनेट में बिखरे पड़े है ऐसे में भास्कर की रिपोर्ट भी तो साज़िश की ओर इशारा कर रही है , तब कुछ बातें ऐसी समझी जानी चाहिए 

मात्र 43 सेकेंड मे टेक आँफ और क्रँश की घटना हुवी..

अगर ये आखरी सेकेंड थे तो फिर एक पायलट द्वारा ये पुछा जाना - क्या तुमने इंजन बंद किया ?

दुसरे पायलट का जवाब - मैने इंजन बंद नही किया..


फिर मेडे..मेडे..मेडे का मँसेज.


ब्लँक बाँक्स के आधार पर बनाई गई लगभग 35 पन्नो की प्रायमरी जांच मे ये सबकुछ बतलाया गया है..


ये किस आधार पर बतलाया गया ?


विमान मे 2 ब्लँक बाँक्स होते है और इन्हे विमान के पिछले हिस्से मे पुछ की तरफ रखा जाता है..


विमान की पुछ सुरक्षित थी..

मोदी जब घटनास्थल गए तो विमान के पिछले हिस्से की फोटो और वीडियो सार्वजनिक की गई थी..


भौतिकी नियम के अनुसार विमान मुंंह की तरफ से गिरता है..


इस लिये ब्लँक बाँक्स को विमान की पिछली साईड मे रखा जाता है..


दुर्घटना होने के एक दिन पहेले ये विमान पँरीस से आया था..


रात भर अडानी एअरपोर्ट (सरदार वल्लभभाई एअरपोर्ट) पर पार्क किया हुवा था..


मतलब ये विमान अडानी एअरपोर्ट के संबंधित प्रशासन की कस्टडी मे था..


टर्कीश कंपनी की तरफ ध्यान भटकाए जाने के बाद टर्कीश कंपनी ने बयान देकर कहा के इस विमान का मेंटेनेंस हमने नही किया है..


जिस कंपनी ने किया है ऊसका नाम हमे पता है मगर हम किसी विवाद मे पडना नही चाहते..


संघ के और भाजपा के पुर्व मुख्यमंत्री की इस दुर्घटना मे मौत होने के बाद भी देश के किसी भी संघी या भाजपाई के मुंह से ' श्र 'ध्दांजलि का 'श्र' शब्द भी ना निकलना परेशान करता है..


ग्रीन एनर्जी से संबंधित देश का बिजनेस टाइकुन कौन है..?

संबंधित विमान रातभर कहां पार्क था..?

ग्रीन एनर्जी से रूपाणी क्यो खफा थे ?

पता नही..


ऐसे संदेहास्पद वातावरण मे..

ऊसी दिन सुबह 'मिड डे' अखबार मे विमान का बिल्डिंग के बाहर निकला हुवा हिस्सा बतलाया गया था और कुछ घंटो बाद इसी तरह से अहमदाबाद विमान हादसा हुवा..


विश्व को यूरोप अमेरिका  नही चलाते..


विश्व को खुफिया ताकते चलाती है..


यूरोप अमेरिका समेत विश्व के सभी देशो के शासको को यही खुफिया ताकते अपने इशारो से चलाती है..


ये ताकते Jओ* निस्ट है मगर शैतान की ऊपासक होती है..


इन ताकतो को जब भी कोई षडयंत्र या कांड करना होता है तो ये इशारो इशारो मे पहेले ही सार्वजनिक रूप से बतला देते है..


ऐसा करने से पाप नही लगता ऐसा शैतान ऊपासको का विश्वास होता है..


सिमसन कार्टून , द इकानामिक टाईम्स वगैरह के माध्यम से अगले साल दस साल वाली प्रमुख घटनाए सांकेतिक तौर पर बतला दी जाती है..


ऐसे बहोत सारे ऊदाहरण दिये जा सकते है..


खुफिया ताकतो द्वारा बिल्डिंग मे फंसे एअर इंडिया लिखे विमान का फोटो ऊसी दिन सुबह मतलब 12 जुन को प्रकाशित किया जाना और  गुजरात के पुर्व मुख्यमंत्री रूपाणी का ग्रीन एनर्जी से जुडे किसी विवाद के दरमियान हवाई यात्रा करना..


खुफिया ताकतो और रूपाणी  के दुश्मनो का गठजोड होने का संदेह पैदा करती है..


खुफिया ताकतो की अपनी एक सच्चाई है..


टारटेनिक जहाज भी खुफिया ताकतो ने ही डुबोया था..


इस जहाज मे सैर करने के लिये ऊन ऊद्योगपतियो को आमंत्रित किया गया था जो फेडरल बँन्क की स्थापना का विरोध कर रहे थे..


और जहुदियो के आर्थिक जाल को तोडने के लिये समानांतर आर्थिक संस्था खडी करना चाहते थे..


मिड डे मे प्रकाशित चित्र की वजह से विमान मे कोई खराबी हुवी हो ऐसा मानने को मन नही करता..


क्यो की ऐसी घटना घटित होने का समय से पहेले ही इशारा कर देना खुफिया ताकतो की मोडस आँपरेंडी है..


ऊपरोक्त सभी जानकारी के आधार इंटरनेट पर जगह जगह फैले पडे है..


कमेंट मे इसी पर आधारित एक रिल का लिंक कमेंट करने का प्रयास किया जाऐंगा..(साभार)

शनिवार, 26 जुलाई 2025

सब गदहा मन बाहिर के…

 


सब गदहा मन बाहिर के…


छत्तीसगढ़ बने पच्चीस  बछर बीत गे। रइपुर ह राजधानी बन गे। गाड़ी-घोड़ा के ठिकना नहीं हे। जेती जाबे तेती मनखेच-मनखे दिखत हें। कतकोन रस्ता म त रेंंगे के सोर नहीं हे फेर कइसे फटफटी चलावत रथे। का लइका का सियान। भई भई चलावत हे। में ह त झपावत झपावत रही गेव। जिवराखन ह राज बने के बाद पहिली घांव रायपुर आय रीहिन हे। अऊ टेशन ले घर पहुंचत बपरा ल एक घंटा लग गे रीहिस। आतेच उत्ता धुर्रा बोले लागीस। कइसे महराज। कइसे रथो ए शहर म। कतका बदल गे हे। राज बने के पहिली आय रेहेव त अतेक भीड़ नहीं रीहिस। टेशन म उतरव तहां ले 10 मिनट म आ जात रेहेंव। फेर ए दारी जी ह असकटा गे। का लइका का सियान भांय भांय गाड़ी ल दबाथे। के घांव जी ह नहीं कांप गे अइसे लागय मांरेच उपर चढ़ा दीही। बीच रोड म गाड़ी ल खड़ा कर देथे। केती ले बुलकबे ते हा सोचतेच रथे कोनो फटफटी वाला ह तोर ले पहीली बुलक जाही अऊ हारन ल अइसे बजाथे के पोटा कांप जाए। तभे त मेहा नहीं आवंव। मरे के पाहरों म एक्सीडेंट होके नहीं मरव।
एकेच सांस म जीवराखन ह  राजधानी के टै्रफिक के अइसे गुणगान कर डारीस के का बताव। के जगह बपरा ह झपावत झपावत त घर आय रीहिस। मे हर केहेव पानी पसीया खा पी ले तहा ले घुमे बर जाबों। घुमे जाय बर ले दे के मानीस। घुमे बर ओखर सवाल शुरु होगे त मे हा समझावत वोला मॉल ले गेव। गाड़ी ल पार्किंग डहार उतारेक तहां ले वो हा मोला चिमचिमा के अइसे धर डारिस जानो मानों वो ह गिरीच जही। गाड़ी ल खड़ा करके लिफ्ट ले वो ला उपर लेगेंव त वो ह बकवा गे रहाय। इतवार के सेती भीड़ रीहिस। इहों भीड़ ल देख के वो खट मन ह बइठ गे। थोड़ेकेच देर म जीवराखन ह असकटा गे अऊ घर जाय के जिद करे लागीस निकलन तहां ले धोड़कीन देर म फेर ओखर शुरु होगे। कस गा महराज असकट नहीं लागय। जेती जाबे तेती खाली गाड़ीच गाड़़ी अऊ मनखेच मनखे दिखत हावय। मे ह केहेव आदत पडग़े हे गा। तहु दुचार दिन रहीबे तहां ले तुहरो आदत पड़ जाही। ते ह घुमे म धियान दे न ऐती तेती देख अऊ कुछु काही बिसाना हे त चल मॉल जाबो।
मॉल काला कथे कहीके त महु केहेव चल भई। भीड़ भाड़ ल देखत घर पहुंचन तहां ले जीवराखन ह शुरु होगे। कस महराज राजधानी बनीस त कहां ले अतेक मनखे आगे एमन ल न रेंगे ल आवय न बने गाड़ी चलाय। अब जीवराखन ल मैं का समझातेव। मोला भोपाल के किस्सा ह सुरता आगे उही ल सुना डारेंव। 
एक घांव भोपाल गे राहन त टीटी नगर डाहर एक बाजु अड़बड़  गदहा दिखीस त मोर संगवारी ह पूछ पारीस। कइसे भईया ईहा  बहुत गदहा हे त आटो वाला ह तुरते केहे रीहिस राजधानी हे साहेब सब डहार के गइहा मन इहां आबेच करथे...!

शुक्रवार, 25 जुलाई 2025

पंत के छक्के ने क्यों याद दिला दी फरूख की…

 पंत के छक्के ने क्यों याद दिला दी फरूख की…


वैसे तो विपरीत परिस्थितियों में कई भारतीय क्रिकेटरों ने अपनी जाँबाज़ पारी से लोगों के दिलों में राज किया है । ऋषभ पंत ने जब इंग्लैंड के जोफ़्रा आर्चर और कंबोज की गेंद को उड़ाया तो फरूख इंजीनियर ओ सलीम दुर्रानी की याद ताज़ा हो गई, आज फरूख इंजीनियर की बात इसलिए क्योंकि पंत के उस साहसिक शॉट के कुछ घंटे पहले ही लैंकाशायर ने अपने घरेलू मैदान ओल्ड ट्रैफ़ल के एक पैवेलियन का नाम फरूख और क्लाइव लॉयड के नाम रखा था…

फारुख इंजीनियर द्वारा 1967 में वेस्टइंडीज के खिलाफ मद्रास ( अब चेन्नई) टेस्ट में हाल, ग्रिफिथ, सोबर्स, गिब्स जैसे दिग्गज गेंदबाजों के सामने बनाए गए शतक को कौन भूल सकता है जिसमे  फारुख इंजीनियर ने लंच से पहले 94 रन बनाए थे। फारुख ने उस पारी में हाल, ग्रिफिथ, सोबर्स जैसे दिग्गज तेज गेंदबाजों के खिलाफ 18 चौके लगाए थे। इस श्रृंखला के पहले दो टेस्ट में फारुख की जगह बुधी कुंदरन को खिलाया गया था। दोनों टेस्ट के हारने के बाद इस तीसरे टेस्ट में उन्हें मौका मिला। पहले ओवर से ही उन्होंने आक्रामक ढंग से खेलते हुए हाल और ग्रिफिथ, जो अब तक भारतीय बल्लेबाजों के लिए काल बन चुके थे, के शॉर्ट पिच गेंदबाजी पर शानदार हुक, पुल और स्कवेर कट शॉट खेलते हुए चौकों की झड़ी लगा दी। जब 129 के स्कोर पर पहले विकेट के रूप में दिलीप सरदेसाई आउट हुए तो उन्होने मात्र 28 रन बनाए थे।जब अंततः लंच के बाद वे 109 रन बनाकर आउट हुए तब तक भारत का स्कोर मात्र 145 रन था। इसी टेस्ट के बाद बुधी कुंदरन ने संन्यास ले लिया और 1974 तक इंजीनियर लगातार भारत के लिए खेलते रहे। 


अगले साल उन्हें लैंकाशायर काउंटी ने अनुबंधित कर लिया। जब उस साल लैंकाशायर और यॉर्कशायर परंपरागत रोज़ जौस्ट खेलों के दौरान क्रिकेट मैच खेला जा रहा था तो फारुख ने उस समय के चोटी के तूफानी गेंदबाज फ्रेड ट्रूमैन की पहली गेंद, जो कि बाउंसर थी, जो इतनी ज़ोर से हुक किया कि गेंद हेडिंगले के पवेलियन के छट से टकराकर वापस मैदान में आ गयी। मैच के बाद जब सारे खिलाड़ी यॉर्कशायर कमिटी रूम में ड्रिंक के लिए इक्कठ्ठा हुए तो ट्रूमैन ने फारुख से पूछा कि उन्हें क्या चाहिए और उनके द्वारा एक ग्लास बियर की फरमाइश पर ट्रूमैन खुद उठकर बार जाकर उनके लिए टेटले का एक पिंट लाकर उन्हें दिया। यॉर्कशायर के सारे खिलाड़ी यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि कि फ्रेड एक विपक्षी, और वो भी लैंकाशायर के, खिलाड़ी को ड्रिंक सर्व करेंगे।


 दरअसल उन्हें मैच शुरू होने से पहले का किस्सा मालूम नहीं था। मैच शुरू होने से पहले फ्रेड लैंकाशायर ड्रेसिंग रूम में अपने पुराने साथी ब्रायन स्टेथम से मिलने लैंकाशायर के ड्रेससिंग रूम में आए। जब ब्रायन ने फारुख परिचय ट्रूमैन से कराया तो उन्होने ने कहा कि भले ही इसने भारत के लिए सबसे तेज और शानदार शतक लगाया हो, पर जब ये आज बल्लेबाजी के आए और मैं गेंदबाजी कर रहा हूँ और इंजीनियर के लिए कोई फोन आए तो आप फोन करने वाले को कुछ देर के लिए प्रतीक्षा करने के लिए कह सकते हैं क्योंकि कुछ ही देर में ये पवेलियन वापस आ ही जाएंगे। पर अपनी गेंद का हश्र देखकर फ्रेड फारुख के बल्लेबाजी के मुरीद बन गए और फिर उनकी दोस्ती फ्रेड के मृत्युपर्यंत बनी रही।


25 फ़रवरी 1938 को बॉम्बे के एक पारसी परिवार जन्मे  इंजीनियर ने माटुंगा के डॉन बॉस्को हाई स्कूल और बाद में माटुंगा के ही पोद्दार कॉलेज में पढ़ाई की। हालांकि बचपन में इंजीनियर की पहली महत्वाकांक्षा पायलट बनने की थी, पर अपने पिता और बड़े भाई डेरियस, जो कि क्लब क्रिकेट खेलते थे, से प्रभावित होकर क्रिकेट के प्रति आकर्षित हो गए।उनके पिता ने उन्हें दादर पारसी कॉलोनी स्पोर्टिंग क्लब में दाखिला दिलाया, जहां उन्होंने सीनियर्स से खेल की बारीकियां सीखीं और बाद में टीम के नियमित सदस्य बन गए। उन्हीं दिनों एक बार डेरियस फारुख को ब्रेबोर्न स्टेडियम के ईस्ट स्टैंड ले गए, जहां उन्होंने डेनिस कॉम्पटन को क्षेत्ररक्षण करते देखा। फारुख ने कॉम्पटन को बुलाया, उन्होंने उन्हें च्यूइंग गम का एक टुकड़ा दिया, जिसे उन्होंने कई सालों तक अपनी बेशकीमती संपत्ति के रूप में संभाल कर रखा। 


वह 1959 में बॉम्बे रणजी टीम में शामिल हुए , हालांकि उन्होंने 1961/62 तक विश्वविद्यालयों के लिए खेलना जारी रखा।इंजीनियर ने 1 दिसंबर 1961 को अपना टेस्ट डेब्यू किया जब भारत ने कानपुर के मोदी स्टेडियम में इंग्लैंड के साथ खेला। चूंकि उस समय बुधी कुंदरन के रूप में एक और बेहतरीन विकेट कीपर बल्लेबाज भारतीय टीम में थे, इसलिए 1967 में उनके संन्यास लेने तक टीम में उनकी जगह नियमित नहीं थी। उन्होने ने 1961/62 से 1974/75 तक भारत के लिए 46 टेस्ट मैच खेले। उन्होंने पाँच एकदिवसीय मैच भी खेले , जो सभी 1974/75 में खेले गए। उन्होंने टेस्ट मैचों में 31 की औसत से 2,611 रन बनाए, जिनमें दो शतक शामिल हैं और उनका सर्वोच्च स्कोर 121 रहा। उन्होंने 66 कैच लिए और 16 स्टंपिंग की। उनके टेस्ट कैरियर का सबसे स्वर्णिम वर्ष 1971 रहा जब भारत ने पहले वेस्ट इंडीज और फिर इंग्लैंड में जाकर पहली बार श्रृंखला जीती थी। ओवल टेस्ट के ऐतिहासिक विजय में उन्होंने दोनों पारियों में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। पहली पारी में जहां उन्होंने 59 रन बनाए वहीं दूसरी पारी में जब 174 के लक्ष्य का पीछा करते हुए भारत के 134 रनों पर ही 5 विकेट गिर गए तो 28 नाबाद रनों की महत्वपूर्ण पारी खेलकर भारत को विजयी बनाया।


शायद उनके रन और भी ज्यादा होते अगर वे आक्रामक शैली में थोड़ा ठहराव ले आते। पर वे एंटरटेनर थे और अपनी बल्लेबाजी देखने आए हुए दर्शकों को निराश नहीं करना चाहते थे। कहते हैं कि जब एक बार उनसे इंग्लैंड के महान सलामी बल्लेबाज बायकाट ने कहा कि आप के पास मुझसे अधिक प्रतिभा है, पर अपने टेम्परामेंट के चलते मैंने आपसे अधिक रन बनाए, तो फारुख ने जबाव दिया - '' पर ज्याफ, लोग देखने किसे आते हैं?" कहा जाता है कि भारत और लैंकाशायर में उनकी शानदार चमकदार बल्लेबाजी को देखने के लिए स्टेडियम में लोगों की भीड़ जुट जाती थी। उनकी लोकप्रियता का आलम ये थे कि एक बार मैनचेस्टर में तय सीमा से अधिक तेज गाड़ी चलाने के जुर्म में ट्रैफिक इंस्पेक्टर चालान काटने लगा, पर जब वह उन्हें पहचान लिया तो हंस कर ये कहते हुए चालान नहीं काटा कि अगर मैंने चालान काट दिया तो मेरे पिता मुझ पर बहुत नाराज हो जाएंगे।


फारुख सिर्फ क्रिकेटर ही नहीं थे, बल्कि स्टार थे। अपने डैशिंग लुक और चुम्बकीय आकर्षण के चलते लोगों, खासकर महिलाओं के बीच बेहद लोकप्रिय थे। वे खाने-पीने और कपड़ों के शौकीन हैं। तभी उन्हें मिले इस सम्मान की चर्चा के दौरान कमेंट्री बॉक्स में रवि शास्त्री ने ऑन-एयर कहा, 'फारुख अपने समय के पिन-अप बॉय थे। वे बहुत फेमस थे। शुरुआत से लेकर अब तक वे वैसे ही हैं, बिल्कुल नहीं बदले। वे एक बहुत अच्छे स्टोरी टेलर है, लेकिन उनकी जो एक सबसे खास बात ये है कि वह खाते बहुत हैं। आप देखेंगे कि खाने के समय उनकी प्लेट हमेशा भरी रहेगी।''


23 जनवरी 1975 को नए बने वानखेड़े स्टेडियम में वेस्टइंडीज के ही विरुद्ध उन्होंने अपना अंतिम टेस्ट खेला। उसी साल वे प्रथम विश्व कप लिए भारतीय टीम में शामिल थे, पर उसी साल के अंत में न्यूजीलैंड और वेस्टइंडीज के दौरे के लिए उन्हें नहीं चुना गया। लैंकाशायर के लिए 1968 से लेकर 1976 तक उन्होंने 9 सीज़न खेले और इस दौरान  लैंकाशायर, जिसने 1950 से कोई ट्रॉफी नहीं जीती थी, 4 बार जिलेट कप और 2 बार जॉन प्लेयर लीग कप जीता। बाद में वे शादी करके वहीं बस गए।बाद में वे क्लब के उपाध्यक्ष भी बने। 1983 में जब भारत ने विश्व कप जीता था तो वे कमेंट्री बॉक्स में मौजूद थे। 2024 में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार प्रदान किया। पर उन्हें थोड़ा मलाल है कि मुंबई, खासकर ब्रेबोर्न स्टेडियम, जहां कि उन्होने अधिकांश क्रिकेट खेली है, उन्हें इस तरह सम्मान नहीं मिला है। क्या लैंकाशायर काउंटी की तरह बीसीसीआई भी बेबोर्न या वानखेडे के किसी स्टैंड का नाम उनके नाम पर रखेगी? (साभार)

गुरुवार, 24 जुलाई 2025

फ़र्ज़ी वोटर के सहारे देश लूटने की चाल और हिटलर

 फ़र्ज़ी वोटर के सहारे देश लूटने की चाल और हिटलर… 


पिछले दिनों हेमंत मालवीय और अजीत अंजुम के साथ जो कुछ हुआ  वह साधारण घटना नहीं थी, लेकिन ये घटना हिटलर के शासन की याद को फिर से ताज़ा इसलिए कर दिया क्योंकि तब भी लोग राष्ट्रवाद की पट्टी बांधे उस अत्याचार पर ख़ामोश थे जिस तरह से आज धर्म की पट्टी बांध कर अत्याचार से मुँह मोड़े हुए है, अब तो हद हो गई कि जनता सरकार चुनने कि बजाय सरकार वोटर चुनने लगी है…

हिटलर के कुछ सच पर प्रकाश डाले उससे पहले बता दूँ कि भारत इस वक़्त बहुत बड़ी साज़िश में फंस चुका है। दो उद्योगपति और दो गुजराती नेता, इन चार लोगों ने मिलकर पूरे देश पर शिकंजा कस रखा है। हालांकि मैं यह मानता हूं कि राजनीति पब्लिक के सामने समस्या बताने से ज़्यादा, समस्या का निराकरण करना होती है।

आज राहुल जी या कांग्रेस, कितने भी बड़े कांड का खुलासा कर दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। आज जरूरत है कि बीजेपी की कारस्तानियों को पकड़ने के बाद उन्हें पब्लिक करने की जगह उनसे फाइट की जाए। गोपनीयता बनाई राखी जाए, हर मोर्चे पर भाजपा को पटखनी दी जाए। भारतीय जनता सोल्यूशन और रिजल्ट ओरिएंटेड हो चुकी है।

एक वक्त था जब जनता वोट देकर सरकार चुनती थी, अब हालात ये हैं कि आज सरकार वोटर चुन रही है। राहुल गांधी जी ने संसद के बाहर कल जिस बड़े खेल के विषय में पत्रकारों को बताया वो उनकी आई टी टीम द्वारा सालभर की गई मेहनत के बाद का निष्कर्ष है।

बीते वर्षों में ईवीएम मशीन पर खूब बवाल मचा था, भाजपा विरोधी लोग कांग्रेस पर आरोप लगा रहे थे कि ये खुलकर ईवीएम के खिलाफ नहीं बोल रहे, देश में बड़ा आंदोलन नहीं कर रहे। कल राहुल जी के बयान के बाद बेहद स्पष्ट हो गया है कि तब बड़े स्तर पर विरोध क्यों न हुआ।

क्योंकि राहुल जी की टीम के हाथ कुछ पुख्ता लग चुका था। कर्नाटक में वोटरलिस्ट को पूरी तरह से डिजिटल किया गया जिसमें 6 महीने लग गए और इसके उपरांत जब इसका डेटा एनालिसिस हुआ तब बीजेपी का सारा खेल सामने आ गया। नेक्स्ट लेवल फर्जी वोटिंग का गेम।

हो सकता है कि भाजपा के इस फर्जीवाड़े ईवीएम एक फैक्टर हो, लेकिन अब यह तय है कि यह एकमात्र फैक्टर नहीं। जिस ख़तरनाक खेल का ख़ुलासा हुआ हैं वो भारतीय सोच भी नहीं सकते। महाराष्ट्र, बिहार छोड़िए, कर्नाटक चुनाव में अभी 2 साल का वक़्त है और कर्नाटक में भी फ़र्ज़ी वोटर डाले जा रहे हैं। फ़र्ज़ी वोटर से सरकारें बना कर भारत को लूटा जा रहा है।

तब राहुल के खुलासे का असर इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि यह बिलकुल हिटलर की रणनीति की तरह है । अमिता नीरव ने एक बार लिखा था… 1942 में फेलिक्स की उम्र इक्कीस के आसपास रही होगी। उस वक्त तक हिटलर यूथ का हिस्सा होना हर जर्मन युवा के लिए अनिवार्य था तो फेलिक्स भी उसका हिस्सा था। हिटलर उसका हीरो था। वह मानता था कि जर्मनी को फिर से उसका पुराना गौरव सिर्फ हिटलर ही दिला सकता है और हिटलर भगवान की तरह हैं। वह जर्मनों के सारे संताप मिटा देगा। 


उस वक्त यहूदियों और विरोधियों के साथ जो कुछ हिटलर कर रहा था, कंस्न्ट्रेशन कैंप्स और उन कैंप्स में जो कुछ हो रहा था, उसकी कहानियाँ बहुत छन-छनकर, बहुत ही फिल्टर होकर आना शुरू तो हो गई थी। मगर ये समझ नहीं आ रहा था इसमें कितनी सच्चाई है और कितनी गहराई है, क्योंकि इन कहानियो के स्रोत अपुष्ट थे। 


फेलिक्स को इनमें से किसी भी बात पर यकीन नहीं था। तब भी नहीं जब हिटलर ने आत्महत्या कर ली। हिटलर की आत्महत्या और उसके बाद के दो-तीन महीनों तक फेलिक्स उदास रहा और उसे एलायड फोर्सेस को लेकर गहरा गुस्सा रहा। जब अलायड फोर्सेस ने जर्मनी औऱ आसपास के कंसंट्रेशन कैंप्स की सच्चाई बयान करना शुरू किया तो फेलिक्स को ये हिटलर के खिलाफ दुष्प्रचार लगा। 


बाद में अमेरिकी सेनाओ ने जर्मन नागरिको को जबरन म्यूनिख के पास 1933 में बनाए गए पहले कंसंट्रेशन कैंप डाखाऊ और वीमर शहर के आसपास बसाए गए और कई दूसरे नाज़ी कैंप्स ले जाया गया, ताकि जर्मन नागरिक यह देख सके कि वे इतने वक्त से जिस हिटलर को भगवान मान कर पूज रहे थे, उसने असल में क्या किया?


उन नागरिकों में फेलिक्स भी एक था। जब वह डाखाऊ पहुँचा औऱ वहाँ के हालात देखे तो वह बुरी तरह से डिस्टर्ब हो गया। कई साल उसकी थैरेपी चली औऱ अंत में उसने आत्महत्या कर ली। 

***

यूँ हर तरह की सत्ताएँ अपने विरोधियों को कुचलती रही हैं। इससे कोई पार्टी, कोई विचारधारा नहीं बची है। मगर पिछले कुछ सालों से हमारे यहाँ ये प्रवृत्ति इतनी तेजी से बढ़ रही है कि यदि कोई आलोचना न करे, लेकिन विपक्षी की तारीफ भी कर दे तो उसके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है।


मामला सिर्फ राजनीतिक होता तब भी दिक्कत तो थी, मगर दिक्कत तब और बढ़ जाती है, जब वे दमन की प्रवृत्ति धार्मिक और सांस्कृतिक मामलों पर भी होने लगे। सोशल मीडिया ट्रोलिंग, धमकियाँ, बहिष्कार आदि-आदि से अब हम बहुत आगे आ गए हैं। 


पिछले दिनों हेमंत मालवीय और अजित अंजुमजी के खिलाफ जो कुछ हुआ, वह ताजा उदाहरण हैं। इससे पहले से भी यह होता ही आ रहा है। हर आलोचनात्मक आवाज, हर असहमति, हर प्रश्न को जैसे सत्ता कुचलने को आतुर है। 


इतना विराट जनसमर्थन और इतने नंबर्स, एक प्रशिक्षित ट्रोल आर्मी, प्रोफेशनल आईटी सेल, जमीन पर सन्नद्ध मदर ऑर्गेनाइजेशन के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता, चौबीस घंटे चलने वाले मीडिया चैनल्स, अखबार... स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटीज के शिक्षक, पत्रकार, फिल्मकार, साहित्यकार, कलाकार और बुद्धिजीवी, व्हाट्सएप ग्रुप्स, रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी औऱ गृहस्थ महिलाएँ... सब मिलकर भी सरकार की असुरक्षा दूर नहीं कर पा रही है। ये बात बहुत चौंकाती हैं।


पिछले कुछ वक्त से फासिज्म, हिटलर और उसके वक्त के जर्मनी को समझने की कोशिश कर रही हूँ। समझा कि टोटेलिटेरियन स्टेट असल में हर तरह के हथकंडों से अपनी सत्ता को बनाए रखने औऱ लगातार ताकत बढ़ाते चले जाने के लक्ष्य पर काम करती है। 

***

हिटलर ने पहला कंसंट्रेशन कैंप 1933 में डाखाऊ में बनाया था और प्रारंभिक तौर पर उसमें विरोधियों और आलोचकों को ही रखा गया था। असल में ताकत की भूख और असुरक्षा का बहुत गहरा संबंध होता है। जब सत्ता दावों की खोखली नींव पर खड़ी होती है, तब असुरक्षा गहरी होती है। 


जानकार कहते हैं कि हिटलर ने जर्मन नागरिकों को विरोधियों और यहूदियों के खिलाफ मोबलाइज करने की कोशिश की थी। मगर उसमें उसे सफलता नहीं मिली। जर्मनी में सत्ता संभालते ही गोएबल्स को प्रपोगंडा मंत्री बनाया गया। 


फिर सिलसिला शुरू हुआ कल्चरल डोमिनेंस का... राजनीति को नाटक का रूप दिया गया। जोशीले भाषण, समर्थन और दुष्प्रचार के लिए फिल्में जैसे 1935 में बनाई गई ट्रायम्फ ऑफ द विल, मीन कॉम्फ पर आधारित फिल्में और नाटक... कलाकारों औऱ बुद्धिजीवियों को हिटलर के समर्थन में लाने और काम करने के लिए दबाव औऱ प्रलोभन।


इसके लिए जर्मनी के प्रचार मंत्रालय ने नाजी शासन के लिए जरूरी माने जाने वाले कलाकारों औऱ बुद्धिजीवियों की सूची बनाई जिसे ‘गोटबेग्नाडेटेन-लिस्टे’ (ईश्वर के आशीर्वाद की सूची) कहा गया। रीच के प्रचार मंत्रालय से युद्ध से छूट के लिए जो आधिकारिक पत्र मिला, उसमें 1,041 कलाकारों और बुद्धिजीवियों के नाम थे। 


इसमें से ललित कला, साहित्य, संगीत, रंगमंच और वास्तुकाला के क्षेत्र की 378 हस्तियाँ गोटबेग्नाडेटन लिस्टे में शामिल थी। मतलब तमाम उपायों से नाजी नीतियों औऱ हिटलर के समर्थन में दुष्प्रचार किया गया। उसका असर हुआ और इस असर का उदाहरण था, फैलिक्स... सिर्फ अकेला फैलिक्स नहीं, कई लोग उस दुष्प्रचार का शिकार हुए। 


ये बात नागरिकों के लिए है, वे तमाम बुद्धिजीवी, पढ़े-लिखे प्रोफेशनल्स के लिए नहीं जो प्रत्यक्ष रूप से हिटलर की नीतियों के लिए काम करते रहे थे। उनके गुनाह तो क्षम्य ही नहीं थे। कुल मिलाकर एक ‘नाजी ईश्वर’ ने देश और दुनिया में तबाही मचा दी। ये कैसे हो पाया? 


उस दुष्प्रचार से जो कई सालों तक अलग-अलग माध्यमों से चलता रहा। 

***

राजनीति को थियेटर का रूप देना असल में हर उस सत्ता के लिए जरूरी होता है, जिसने ताकत  तो लोकतांत्रिक तरीके से पाई हो, मगर उसे बनाए रखने के लिए तमाम अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक तरीके इस्तेमाल करने पड़ रहे हैं। 


पिछले कुछ सालों के हमारे सांस्कृतिक परिदृश्य पर नजर डालें, हमारी फिल्में, गाने, साहित्य, बुद्धइजीवी, कलाकार, लेखक, पत्रकार... और हिटलर के जर्मनी को जानें। चकित होना बहुत मामूली शब्द लगेगा।(साभार)

बुधवार, 23 जुलाई 2025

हरेली-टोनही ज़मीन से अढ़ाई फिट ऊपर…

 हरेली-टोनही ज़मीन से अढ़ाई फिट ऊपर… 


छत्तीसगढ़ का पहला त्यौहार हरेली है और इसे सावन मास के अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन किसान अपने खेती किसानी में प्रयुक्त होने वाले औजारो की पूजा करते हैं तो घर घर न केवल पकवान बनते हैं बल्कि घर में आने वाली तमाम तरह की बाधाओं को दूर करने के उपाय किए जाते हैं, तब वह क़िस्सा जो बचपन की स्मृति लिये ज़ेहन में समाया हुआ है उसे आज आपके साथ शेयर कर रहा हूँ…

बात तीस पैतीस साल पुरानी है, कहा जाता है कि यह अमावस्या जादू टोने के लिये सबसे उपयुक्त दिन है, इस दिन तमाम तरह की शक्तियों को जागृत भी किया जाता है इसलिए आज के दिन टोनही झुपने ज़रूर निकलती है।

इस कहा सुना के फेर में हम कुछ दोस्त नदी किनारे रात में पहुँच गये , मान्यता है कि टोनही रात में निकलती है और वह न केवल ज़मीन से अढ़ाई फिट ऊपर चलती है बल्कि उसके मुँह से आग भी निकलते रहता है।

इस पहचान के आधार पर हम कुछ दोस्तों के साथ नदी किनारे जा कर चक्कर लगाने लगे।

उस रात हमे कुछ नहीं दिखा, यह सिलसिला कई सालों तक चला…

फिर …

अब भी इस मान्यता पर क्या कहें…

हरेली तिहार के दिन पूजा करने से पर्यावरण शुद्ध और सुरक्षित रहता है और फसल उगती है तो किसी भी प्रकार की बीमारी नहीं लगती है. हरेली तिहार मनाने से फसल को हानिकारक किट तथा अनेको बीमारिया नही होती है इसलिए हरेली तिहार मनाया जाता है. हरेली त्यौहार के दौरान छत्तीसगढ़ के लोग अपने-अपने खेतों में भेलवा पेड़ की शाखाएँ लगाते हैं. वे  अपने घरों के प्रवेश द्वार पर  नीम के पेड़ की शाखाएँ भी लगाते हैं. नीम में औषधीय गुण होते हैं जो बीमारियों के साथ-साथ कीड़ों को भी रोकते हैं.  लोहार हर घर के मुख्य द्वार पर नीम की पत्ती लगाकर और चौखट में कील ठोंककर आशीष देते हैं. मान्यता है कि ऐसा करने से उस घर में रहने वालों की अनिष्ट से रक्षा होती है. हरेली पर्व में, गांव और शहरों में नारियल फेंक प्रतियोगिता आयोजित की जाती है. सुबह पूजा-अर्चना के बाद, गांव के चौक-चौराहों पर युवाओं की टोली एकत्रित होती है और नारियल फेंक प्रतियोगिता खेली जाती है. इस प्रतियोगिता में, लोग नारियल को फेंककर दूरी का मापन करते हैं. नारियल हारने और जीतने का सिलसिला रात के देर तक चलता है,  हरेली त्यौहार के दिन गाय बैल भैंस को भी साफ सुथरा कर नहलाते हैं. अपनी खेती में काम आने वाले औजारों को हल (नांगर), कुदाली, फावड़ा, गैंती को धोकर और घर के बीच आंगन में रख दिया जाता है या आंगन के किसी कोने में मुरूम बिछाकर पूजा के लिए सजाते हैं और उसकी पूजा की जाती है साथ ही अपने कुलदेवता की भी पूजा की जाती है .  

माताएं गुड़ का चीला बनाती हैं और कृषि औजारों को धूप-दीप से पूजा के बाद नारियल, गुड़ के चीला का भोग लगाया जाता है. अपने-अपने घरों में अराध्य देवी-देवताओं के साथ पूजा करते हैं. हरेली के बच्चे गेंड़ी का आनंद लेते हैं. इस अवसर पर सभी के घरों में विशेष प्रकार के पकवान बनाये जाते हैं. चावल के आटे से बनी चीला रोटी को इस दिन लोग खूब चाव से खाते हैं. कोई इसे नमकीन बनाता है, तो कोई इसे मीठा भी बनाते हैं. यह खाने वालों की पसंद के ऊपर होता है. इस तरह से यह त्यौहार परम्पराओं से भरी हुई है. हरेली तिहार के दिन सभी लोग अपने–अपने दरवाजा पर नीम टहनी तोड़ कर टांग देते है और इसी बहुत गेंड़ी खेल का आयोजन शुरु हो जाता है. हरेली तिहार के दिन सुबह से ही बच्चे से लेकर युवा तक 20 या 25 फिट तक गेंडी बनाया जाता है. उसी दिन सभी युवा एवं बच्चे गेंडी चढ़ते है गावं में घूमते है. बच्चों और युवाओं के बीच गेंड़ी दौड़ प्रतियोगिता भी की जाती है.

मंगलवार, 22 जुलाई 2025

बिसाहू दास महंत, जिन्होंने बांगो बांध का सपना देखा…

 बिसाहू दास महंत -जिन्होंने बाँगों बांध का सपना देखा…


छत्तीसगढ़ छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़ियों की उपेक्षाअपमान की दास्तान तो उस गांधीवादी राजनेता के साथ भी जुड़ी है जिन्होंने जीवंतपर्यन्त अपने को छत्तीसगढ़ के लिये समर्पित कर दियाकभी चुनाव नहीं हारे और आज़ादी के बाद से 1978 तक विधानसभा मेंछत्तीसगढ़ का नेतृत्व किया। किसानों की पीड़ा को अपनी पीड़ा बनाकर बांगो बांध का  केवल सपना देखा उसे पूरा भी किया कहा जायतो ग़लत नहीं होगा,

राजनीति के गुटबाज़ी ने उन्हें हाशिये पर धकेलने की तमाम कोशिश की लेकिन वे  तो झुके  ही डरेबल्कि डटे रहेलड़ते रहे 

ये थे स्व बिसाहू दास महंत

तब यहाँ शुक्ल बंधुओं की तूती बोलती थीउनके समर्थन के बिना राजनीति कितना कठिन था बताने की ज़रूरत नहीं हैऔर यह सबउनके पुत्र चरण दास महंत को भी आगे जाकर झेलना पड़ा थाचरणदास महंत और उनकी पत्नी ज्योत्सना आज छत्तीसगढ़ में कांग्रेस कीराजनीति के चमकदार चेहरे हैं लेकिन आज बात स्व बिसाहू दास की..

बिसाहू दास ही वे नेता थे जिनके दम पर अर्जुन सिंह आगे बढ़े और शायद यही वजह है कि अर्जुन सिंह ने इस परिवार के लिए आगे आकर काम किया, चरण दास की नौकरी, शादी से लेकर एमएलए की टिकिट…


बिसाहू दास महंत (1 अप्रैल 1924 - 23 जुलाई 1978) मध्य प्रदेश के एक सफल  राजनीतिज्ञ थेवह राज्य में कांग्रेस द्वारा निर्मित अबतक के सबसे सफल विधायकों में से एक थेउन्होंने निर्वाचन क्षेत्रों के लिए क्रमशः एकदो और तीन कार्यकालों के लिए बारादुवार काप्रतिनिधित्व कियाजिसे अब नया बाराद्वारनवागढ़ और चांपा के नाम से जाना जाता हैउन्होंने 1952 में बाराडुवर से 1957 और1962 में नवागढ़ और वर्ष 1967, 1972 और 1977 में चांपा से विधानसभा चुनाव लड़ा और जीता. 1952 में जीतना शुरू करने के बादसे वह कभी चुनाव नहीं हारेवे लगातार छह बार चुने गएजब तक उनकी मृत्यु नहीं हुईवे बहुत लंबे समय तक बिस्तर पर पड़े रहेअंतमें कार्डियक अरेस्ट के कारण उनकी मृत्यु हो गई.

किसान थे दिल के करीब :1942 और 1947 के बीच स्वमहंत ने अपने कॉलेज जीवन में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थीइसवजह से सरकार ने उनके खिलाफ कार्रवाई की और उनकी छात्रवृत्ति को भी खारिज कर दिया थाआगे चलकर वह राजनीति में ऊंचे पदोंपर रहेअविभाजित मध्यप्रदेश में मंत्री जैसे पदों पर काम करते हुए उन्होंने किसानों की पीड़ा को समझा और उनके लिए सिंचाई काप्रबंध करने की ठानीकोरबा जिले में निर्मित प्रदेश के सबसे ऊंचे मिनीमाता बांगो बांध के शिलान्यास का श्रेय उन्हें दिया जाता हैजिससे आज लाखों हेक्टेयर खेतों की प्यास बुझती हैकिसानों अपने खेत की सिंचाई कर पाते हैं.

पुत्र और बहू आगे बढ़ा रहे विरासत :स्वर्गीय बिसाहू दास महंत के दो पुत्रों में डॉ चरणदास महंत भी राजनीति में उतने ही सफल हैंजितनेकभी बिसाहू दास महंत थेडॉ चरणदास महंत भी अविभाजित मध्यप्रदेश में मंत्री जैसे पदों पर रहेकेंद्र में भी सांसद रहेवर्तमान में वहछत्तीसगढ़ के विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैंजबकि चरणदास महंत की पत्नी ज्योत्सना महंत कोरबा लोकसभा सीट से सांसद हैं.