छत्तीसगढ़ सरकार की कथनी और करनी का अंतर अब तो साफ-साफ दिखने लगा है। इन दिनों छत्तीसगढ़ भयावह गर्मी से जूझ रहा है। पानी को लेकर सब तरफ त्राहि मचा हुआ है। पार्षद की हालत खराब है और लोग निगम पर पानी के लिए टूट पड़े हैं। सीमित संसाधनों में पानी की आपूर्ति तो की जा रही है लेकिन गिरते जल स्तर ने आम आदमी का होश उड़ा दिया है लेकिन सरकार को इससे कोई सरोकार नहीं है। प्रदेश के मुखिया डा. रमन सिंह पानी के लिए चिंता करते नहीं थक रहे हैं लेकिन वे भी दूसरे नेताओं की तरह सिर्फ बयानबाजी पर उतारू है और वास्तविकता इससे परे हैं और यही स्थिति रही तो आने वाले दिनों में राजधानी में जीवन यापन करना कठिन हो जाएगा लेकिन सरकार को इससे कोई मतलब नहीं है। राजधानी की इस विषय स्थिति पर न तो कोई कार्ययोजना ही तैयार की जा रही है और न ही पर्यावरण प्रेमी ही इस दिशा में काम कर रहे हैं।
पर्यावरण प्रेमी तो बरसात आते ही दो-चार दर्जन वृक्ष लगाकर सरकारी ग्रांट लेने खाना पूर्ति कर लेते हैं सिर्फ बरसात के दिनों में वृक्ष लगाने से राजधानी में पानी की समस्या या प्रदूषण से मुक्ति मिल जाने की सोच ने ही राजधानीवासियों को गर्मी में बदहाल कर रही है। वास्तव में सरकार इस बारे में गंभीर है तो उसे न केवल राजधानी बल्कि छत्तीसगढ क़े सभी जिला मुख्यालयों के लिए कार्य योजना तैयार करना होगा। सरकार सबसे पहले यह तय कर ले कि वह तालाबों और कृषि भूमि को बर्बाद होने नहीं देगी। इस पर कड़ा कानून बनाया जाना चाहिए अन्यथा आने वाले दिनों में जो भयावहता दिखाई देगी उसकी कल्पना करना ही बेमानी है।
गांवों में तो तालाबों खुदवाई जा रही है लेकिन शहर के तालाबों को पाटकर सरकार क्या करना चाहती है वह तो वही जाने लेकिन पर्यावरण के हिमायती भी सरकारी ग्रांट के लालच में तालाबों को पटते चुपचाप देख रही है। राजधानी में पहले भी रजबंधा तालाब, लेंडी तालाब सहित दर्जनभर तालाबें पाटी जा चुकी है और इसका दुष्परिणाम आज शहर वाले भोग रहे हैं। इन दिनों गौरव पथ के नाम पर तेलीबांधा तालाब और एक मंत्री की जमीन के नाम पर आमापारा स्थित कारी तालाब पाटा जा रहा है महाराज बंध तालाब तो एक भाजपा नेता ही पाट कर प्लाटिंग कर रहा है लगता है इन तालाबों को पाटने वालों को अपनी आने वाली पीढ़ी की चिंता नहीं है। अपनी चिंता में वे इसी तरह तालाब पाटते रहे तो आने वाली पीढ़ियां नारकीय जीवन जीने मजबूर होगी जो आप और हम सब के बच्चे होंगे।
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