सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

अब आम आदमी क्या करे...

पिछले दिनों ठाकुर प्यारे लाल सिंह और हरि ठाकुर की प्रतिमा के सामने जो कुछ भी हुआ वह अराजकता की स्थिति मानी जा रही है। देवांगन समाज के साथ सर्व छत्तीसगढिय़ा समाज ने कानून-व्यवस्था को ठेंगा बताकर जीई रोड पर घंटो हंगामा किया। ये लोग अचानक सडक़ पर नहीं आए थे। बुनकर समाज की जमीन को कब्जे से मुक्ति दिलाने का आंदोलन एकाएक उग्र नहीं हुआ था। उनकी सालों पुरानी मांग रही है। बालकृष्ण अग्रवाल इस शहर के लिए नया नाम नहीं है। और न ही उसके कारनामें से ही लोग अनजान रहे है। अजीत जोगी से लेकर बृजमोहन अग्रवाल से उनके मधुर संबंध जग जाहिर रहे हैं। अग्रोहा सोसायटी से लेकर अपहरण कांड के कितने ही गवाह हैं। लेकिन सरकार ने कभी भी उस पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं की। पुलिस भी थर-थर कांपती नजर आती है।
मैं एक बात सरकार से पूछता हूं कि जब कानून में स्पष्ट प्रावधान है कि लीज की जमीन का और लीज नहीं हो सकता फिर भी देवांगन समाज को न्याय मिलने में देर क्यों हो रही है। ऊपर से वहां शराब दुकान का खुलना क्या आम लोगों को चिढ़ाने वाला काम नहीं है। मुख्यमंत्री स्वयं सोचे कि अधिकारी उनकी बात मानते हैं या गुण्डा मवालियों या शराब माफियाओं की। तभी तो स्पष्ट निर्देश के बाद न तो तत्कालीन कलेक्टर संजय गर्ग की ही शराब दुकान हटाने की हिम्मत हुई और न ही वर्तमान कलेक्टर डॉ. यादव की ही हिम्मत हो रही है। देवांगन समाज ने पहले ही चेता दिया था कि वे अपनी मांग को लेकर 20 तारीख को रैली व सभा कर रहे हैं। आमंत्रण मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को भी था लेकिन वे नहीं पहुंचे। लोग आक्रोशित तो थे ही। ऐसे में कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी क्या सिर्फ पुलिस की है।
यानी शराब माफियाओं से लेकर अपराधियों को संरक्षण नेता दे और मामला बिगड़ जाए तो दोष पुलिस पर मढ़ा जाए। ऐसा न्याय छत्तीसगढ़ के अलावा और कहां होगा? देवांगन समाज का यह आंदोलन एकाएक उग्र नहीं हुआ और न ही मठपुरैना के लोग ही एकाएक उत्तेजित हुए थे। सरकार की मनमानी और न्याय की धीमी रफ्तार की वजह से लोग कानून व्यवस्था अपने हाथ में लेने लगे है। मठपुरैना में मासूम छात्र मनीष की हत्या सरकार के लिए शर्मनाक है। गांव-गली में शराब दुकान व अवैध शराब की गंगा बहाई जा रही है। मंत्री से लेकर अधिकारी अपराधियों को संरक्षण दे रहे हैं। शिकायत करने वाले या तो पुलिस की झिडक़ी का शिकार हो रहे हैं या गुण्डा मवाली का। ऐसे में जब भीड़ आक्रोशित हो तो क्या होगा? यह राजधानी की स्थिति है तो प्रदेश के सुदूर इलाकों की स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
सरकार को भी सोचना होगा कि छत्तीसगढ़ जैसे सम्पन्न राज्यों में पूरी पीढ़ी को बर्बाद करने के एवज में शराब का राजस्व कितना मायने रखता है? सरकारी जमीनों के बंदरबांट का आखरी हिस्सा क्या विवाद नहीं है? फिर क्यों इस तरह की लीज दी जानी चाहिए। सवाल सब का है कि क्या सरकार सिर्फ मनमानी के लिए होती है या लोगों की तकलीफों को दूर करने के लिए? सवाल यह भी है कि जिम्मेदारी किसकी है जब अधिकरी मुखिया का ही कहना न माने।
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