रविवार, 10 मार्च 2019

मोदी है तो मुमकिन है का नया जुमला..

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अच्छे दिन आयेंगे के नारे के साथ सत्ता तक पहुंची मोदी सरकार ने बालाकोट एयर स्ट्राईक के बाद मोदी है तो मुमकिन है के नये नारे के सहारे 2019 में होने वाली सत्ता की लड़ाई को जीत लेना चाहती है। युद्ध उन्माद से पैदा हुए इस नये नारे की गूंज पार्टी दफ्तर से लेकर सोशल मीडिया में हथियार के रुप में इस्तेमाल किया जाने लगा है और केन्द्र सरकार के हर विभाग ने प्रधानमंत्री नरेन्द्री मोदी के फोटो के साथ नामुमकिन अब मुमकिन है का नारा भी अपने विज्ञापनों में चिपकाने लगा है।
सूचना तंत्र की घोर लापरवाही और सरकार की असफलता के बीच मोदी राज में एक के बाद एक हुए बड़े आतंकवादी हमले के पहले ही अच्छे दिन आयेंगे का नारा जब जुमला में तब्दिल होकर किसान, बेरोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य का मुद्दा हावी होने लगा था। मोदी सरकार की हार साफ दिखलाई देने लगा था तब पुलवामा के बाद बालाकोट में हुए एयर स्ट्राईक ने एक बार फिर नरेन्द्र मोदी को संजीवनी देने की कोशिश की।
हिन्दू मुस्लिम मंदिर मस्जिद और भारत पाक का मुद्दा हमेशा से ही राजनेताओं के लिए सत्ता की सीढ़ी रहा है। ऐसे में जब-जब किसान और बेरोजगारी का मुद्दा बड़ा होने लगता है सत्ता के लिए परेशानी बढऩे लगती है और तब सत्ता में बने रहने के लिए ऐसे हथियारों का इस्तेमाल होता है जिसमें उसके अपने फायदे हो।
2014 में अच्छे दिन आयेंगे के नारे के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती किसान और बेरोजगारी के मुद्दे थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल की नियुक्ति के अलावा स्वास्थ्य और शिक्षा के मुद्दे बड़ी चुनौती थी। आतंकवाद और भ्रष्टाचार के अलावा राम मंदिर से लेकर धारा 370 को हटाने का मामला भी मोदी सरकार के लिए चुनौती भरा था। इनमें से सरकार ने किस दिशा में बेहतर काम किया यह सरकार भी नहीं बता पायेगी। लोगों की सरकार से उम्मीद टूटने लगी और विपक्ष मुद्दों को लेकर सरकार पर तीखे हमले शुरु किये तो सरकार इससे बच निकलने का रास्ता ढूंढने लगी। उपर से नोटबंदी और जीएसटी की मार से व्यापार तो प्रभावित हुआ ही लाखों नौकरी भी चली गई।
कहां तो तय था चिरागा हर शहर के लिए
ज मयस्सर नहीं एक घर के लिए

हर साल दो करोड़ बेरोजगारों को नौकरी देकर अच्छे दिन लाने का वादा था लेकिन नौकरी छिनी जाने लगी। कम होती नौकरी में युवाओं ने स्वयं को ठगा महसूस करना शुरु कर दिया और लोग कहने लगे कि इससे अच्छा तो वही दिन थे। अच्छे दिन लाने का वादा जुमला साबित हो गया। तीन बड़े राज्यों के चुनाव को सेमीफाइनल बताने के बाद भी भाजपा सत्ता से बेदखल कर दी गई। संवैधानिक संस्थाओं के औचित्य का सवाल बड़ा होने लगा और सबसे बड़ी बात तो आतंकवाद के मसले जस के तस खड़े दिखाई दिये। मोदी राज में आतंकवादियों के बड़े हमलों की वजह से सीमा और कश्मीर से आती शहीदों की लाश से लोगों का गुस्सा बढऩे लगा। सरकार के खुफिया तंत्र की असफलता ने मोदी सरकार की परीक्षा ही नहीं ली बल्कि लोगों ने फेल करना भी शुरु कर दिया।
उरी हमले के बाद किये गये सर्जिकल स्ट्राइक की चमक को भुनाने में लगी भाजपा के लिए पुलवामा की घटना सत्ता छिनते नजर आई तब एक बार फिर राष्ट्रभक्ति और देशद्रोही का प्रमाण पत्र बांटने का सिलसिला शुरु हो गया। बालाकोट में किये हवाई हमले को भुनाने युद्ध उन्माद तक ले जाया जाने लगा। इस मामले में कई टीवी चैनलों ने तो बालाकोट में तीन साढ़े तीन सौ आतंकवादियों के मारे जाने की खबर बगैर पुष्टि किये चला दी। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो हमले वाले दिन दोपहर को ही चार सौ आतंकवादियों को मारने का दावा कर दिया और भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने तो ढाई सौ मार गिराने का दावा किया गया। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी हर सभा में बालाकोट की कार्रवाई का न केवल जिक्र करते रहे बल्कि घर में घुसकर मारने की घोषणा करते रहे।
युद्ध उन्माद के बीच किसान, बेरोजगार स्वास्थ्य-शिक्षा जैसी बुनियादी मुद्दों से जुड़ी खबरें गायब होने लगी। हिन्दू मुस्लिम और भारत पाक के इस उन्माद में भाजपा को अपनी बात दिखलाई देने लगी और यहीं से एक नया नारा निकला मोदी है तो मुमकिन है।
लेकिन अब सवाल यह है कि क्या मोदी है तो मुमकिन है का यह नारा अच्छे दिन आयेंगे की तरह आम जनमानस के विश्वास पर खरा उतरेंगी। इस नारे की विश्वसनियता बनाये रखने क्या देश की जनता में जारी युद्ध उन्माद को चुनाव तक बनाये रखा जा सकता है और युद्ध उन्माद बना रहे इसके लिए भाजपा क्या करेगी। यह उसके लिए बड़ी चुनौती है। 
क्योंकि जब यह उन्माद उतरेगा तब फिर जो सवाल उठेंगे वह मोदी सरकार की राह में बाधा डालेंगे। नोटबंदी और जीएसटी की मार से परेशान व्यापारी, नौकरी के अभाव में बेरोजगार युवा, किसान, शिक्षा और स्वास्थ्य का सवाल फिर खड़ा होगा तब लोग पूछेंगे कि मोदी के रहते जब सब मुमकिन है तो अच्छे दिन क्यों नहीं आयें?

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