गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

दलालों के जाल में बड़े अखबार

अब जमाना बदल गया है इसके साथ अखबारों की सोच में भी बदलाव हुआ है। कभी मिशन के रुप में चलने वाले इस धंधे पर अब पूरी तरह व्यवसायिकता हावी है और इस व्यवसाय को सत्ता के दलालों ने अपने कब्जे में कर लिया है।
प्रतिष्ठित अखबारों के रुप में अपनी पहचान बना चुके अखबारों में सत्ता के दलाल किस कदर हावी है इसकी कल्पना आम आदमी शायद ही कर पाए। ऐसा ही मध्यप्रदेश से प्रकाशित होने वाला एक अखबार जो छत्तीसगढ़ में स्वयं को स्थापित करने में लगा है। इस अखबार ने स्वयं को स्थापित करने पाठकों की बजाय सत्ता के एक ऐसे दलाल को अपने पाले में कर रखा है जो भाजपा के एक प्रदेश पदाधिकारी का न केवल रिश्तेदार है बल्कि भाजपाई उसे आम बोल चाल में सीएम का दत्तक पुत्र भी कहते हैं।
यह अलग बात है कि उसने इस अखबार को जमीन दिलाते-दिलाते स्वयं के लिए कौड़ी मोल में सरकारी जमीन हथिया ली। पेशे से डाक्टर इस दलाल के बारे में यह भी चर्चा है कि वह इस अखबार के परिशिष्ठ के लिए सरकार से लाखों रुपए का विज्ञापन तक दिलवाता है।
यह सिर्फ एक अखबार की कहानी है। ऐसे ही कई सत्ता के या मंत्री के दलाल रोज शाम संपादकों के कमरे में कॉफी की चुस्कियां लेते दिखाई पड़ जाएंगे।
आश्चर्य का विषय तो यह है कि स्वयं के अखबार में खबर नहीं छाप पाने वाले ये संपादक दूसरे पत्रकारों तक को दलाली करने की प्रेरणा देते नहीं शर्माते। सत्ता के दलालों के चंगुल में फंसते अखबार खबरों को किस तरह से पेश करते होंगे। समझा जा सकता है।
और अंत में...
किसानों के आंदोलन को असफल बनाने जब पूरा सरकारी तंत्र लगा हुआ था तब जनसंपर्क विभाग का एक अधिकारी सरकार के निर्देशों के विरुध्द पत्रकारों को फोन कर इसकी सफलता की कहानी सुनाने में व्यस्त था। सालों से जमें इस अधिकारी के रवैये से पत्रकार भी हैरान थे कि आखिर कुर्सी पाते ही ये सरकार के विरोधी कैसे हो गए।

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