यह किस्सा बहुतों ने कईयों बार सुना होगा कि जब रोम जल रहा था तब नीरों जी चैन की बांसुरी बजा रहे थे। यह किस्सा फिर दोहराई जा रही है और छत्तीसगढ़ की राजधानी में यही सब हो रहा है। सफाई नहीं पानी नहीं बिजली नहीं और उपर से अधिकारियों के थोक में तबादले और एक तरफा कार्यभार छोड़ने के आदेश देकर बांसुरी बजाने मुरख विदेश चला गया। इन्होंने टिकरापारा से लेकर अवैध कालोनी में भी आग लगाई दवा बाजार भी इसकी आग से झुलस रहा है।
क्या मुरख को बांसुरी बजाने विदेश जाना जरूरी था जबकि बिरजू की बांसुरी का बेसुरा राग क्या कम पड़ गया था। बिरजू की बांसुरी के सुर में तो वैसे भी कांग्रेसी नाच रहे हैं। वे इस राग से इतने मतहोश है कि इस राग की कर्कशता इन्हें सुनाई नहीं पड़ रही है। वैसे भी बिरजू को बांसुरी बजाने में महारत हासिल है। भाव मंगिमा ऐसी कि कोई भी तारीफ कर ले और जब बांसुरी से नगदी भी निकले तो कान में कर्कशता कहां सुनाई पड़ने वाली है।
महापौर किरणमयी नायक खुश थी कि मुरख-बिरजू की बांसुरी के प्रभावशाली तान के बाद भी वह चुनाव जीत गई लेकिन पंद्रह दिन में ही उन्हें पता चल गया कि बिरजू की बांसुरी का प्रभाव कांग्रेसियों पर किस कदर हावी है। अभी सभापति के हार से महापौर उबर भी नहीं पाई थी कि सामान्य सभा की बैठक, निगम अधिकारियों की ड्रामेबाजी से वे दुखी हो गई। आदमी जब कुछ अच्छा करना चाहे और उस पर बेवजह अंड़गा हो तो दुखी होना स्वाभाविक है।
एक तो निगम के पास वैसे ही फंड की कमी है तभी तो तात्यापारा से लेकर शारदा चौक के चौड़ीकरण का काम रुका हुआ है। ऐसे में सरकार पर जब कांग्रेसी महापौर वाले निगमों के लिए फंड नहीं देने के आरोपोें के साथ अधिकारियों के सहयोग नहीं करने का आरोप हो तो मामला गंभीर हो जाता है। राजधानीवासियों को पहले ही कौन सा सुख दे दिया है सरकार ने जो अब नए ड्रामेबाजी व राजनीति की जा रही है। गंदगी और बजबजाती नालियों से वैसे ही त्रस्त है लोग। पीने का पानी तक ठीक से नसीब नहीं हो रहा है। निगम के कांक्रीट बिछाने वाली नीति ने यहां के पर्यावरण को पहले ही प्रदूषित कर दिया है अप्रैल में 45 का ताप भुगतना पड़ रहा है। बरसात में सड़कों-गलियों तक पानी भर जा रहा है। उल्टी दस्त जैसे मौसमी बीमारियां भुगतनी पड़ती है। क्या इसे शहर का जलना नहीं कहा जा सकता और ऐसे में जिम्मेदार लोग घुमने फिरने निकल जाए और अपना राग अलापे तो सम्राट नीरो की यादें ही ताज होगी।
भाजपा कांग्रेस बेशक राजनीति करें लेकिन अंधेरगर्दी न मचाये। शांत जनता को न कुरेदे। क्योंकि अब वो जमाना नहीं है कि नीरों चैन से बंशी बजा ले क्योंकि अब जनता भी पहले जैसी नहीं है वह बांसुरी बजाने वाले की बांसुरी तोड़ने की बजाय बजाने वाले को ही बजा देगी।
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