सोमवार, 26 जुलाई 2010

आदमखोर की राह

राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी वास्तव में महात्मा थे। तभी तो उनकी कही बात आज भी प्रासंगिक है। गांधी की जय जयकर अब भी होती है और होती रहेगी लेकिन उन्हें मानने वाले भी उनकी बातों पर एक फीसदी भी नहीं चलते ।
देश के लिए लंगोट में निकलकर उन्होंने भारतीयता की पहचान विश्व स्तर पर बनाई थी उनके कार्यो का लोहा आज भी उनके विरोधी मानते है। गांधी के देश में गांधी अनुयायी इस तरह हो जायेंगे किसी ने कल्पना नहीं की थी। जनता की गाढ़ी कमाई को मिल बैठकर खाने की रणनीति की शुरूआत तो उसी दिन शुरू हो गई थी जब देश सेवा का दावा करने वाले सांसद-विधायकों ने अपने लिए वेतन-भत्तों के लिए कानून बना लिया।
पता नहीं इन्हें वेतन देने की सोच के पीछे कौन लोग थे लेकिन मेरा दावा है कि इसके पीछे वेतन भोगी कर्मचारी-अधिकारी जरूर रहे होंगे जिन्हें डर था कि यदि शेर को मानव खून नहीं मिलेगा तो वह आदम खोर नहीं बन सकेगा और जब नेता को वेतन की बीमारी लग जायेगी तो वह पैसों के पीछे भागेगा और नौकरशाह की राह आसान हो जायेगी। यही वजह है कि अब भी लोग अंग्रेजों के शासन व्यवस्था की तारीफ करते नहीं थकते।
सबसे पहले तो नेताओं और अधिकारियों को जो वेतन दिया जाता है उसे समझना जरूरी है। दरअसल शासन के पास पैसा आने के मोटे तौर पर दो ही साधन है। पहला साधन संपदा से और दूसरा साधन है आम लोगों पर लगाया जाने वाला टैक्स। इन्ही राशि से वेतन दिये जाते हैं।
एक गरीब से गरीब आदमी भी टैक्स देता है और इसे किस तरह से हमारे रक्षक दुरूपयोग कर रहे हैं किसी से छिपा नहीं है। नेताओं को जनप्रतिनिधि कहना ही बेमानी है क्योंकि वह चुनाव जरूर जीतता है लेकिन उसे उसके काम के बदले वेतन दी जाती है और वेतन लेने वाला मालिक नहीं नौकर होता है और लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि वेतन लेने वाला नौकर तय करता है कि मालिक किस तरह से जिन्दगी जिए। यह तो आ बैल मुझे मार वाली कहावत को ही चरितार्थ करता है। आम आदमी यह सोचकर विधायक-सांसद बनाते है कि ये लोग उनका स्तर सुधारेंगे लेकिन आजादी के 60 साल बाद भी लोगों को न पीने का पानी उपलब्ध है न चिकित्सा या शिक्षा सुविधा ही उपलब्ध है।
वेतन भोगी नेताओं-अधिकारियों का रहन-सहन आम आदमी से ऊचा होता जा रहा है और जो लोग अपना पेट काटकर इन्हें काम पर रखा है वे लोग नारकीय जीवन जीने मजबूर हैं। क्या यह हमारे सांसदों-विधायकों का दायित्व है कि संसद में बैठकर वे चोर-चोर मौसेरे भाई की तर्ज पर केवल अपने हितों का कानून बनाये और जनता को प्रताड़ित करें।
हमारी लड़ाई इस व्यवस्था को बदलने की है हम चाहते हैं कि जनप्रतिनिधि कहलाने वाले वेतन व पेंशन से परहेज करें और जिस दिन जनप्रतिनिधि ऐसा कर पायेंगे वे भ्रष्टाचार को रोक लेंगे तब अकेले वेतन पाने वालों से वे काम ले सकेंगे अन्यथा मिल बांटकर खाने की रणनीति में आदमखोर होती व्यवस्था में रोज नए आदमखोर शेर पैदा होंगे जो अपनी भूख ही मिटाएगा। जनता जाये भाड़ में।

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