गुरुवार, 23 सितंबर 2010

यह तो भाजपाई राजनीति की दोगलाई है...

क्वींस बेटन के स्वागत को लेकर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बहिष्कार कर दिया तो छत्तीसगढ क़े मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह स्वागत पर कूद गए थे। एक ही पार्टी के दो मुख्यमंत्रियों का यह खेल किस श्रेणी में जाता है यह तो वही जाने लेकिन आम लोगों में इस खेल को दोगलाई बताया जा रहा है।
वैसे तो धर्म की राजनीति कर सत्ता तक पहुंची भारतीय जनता पार्टी के सिध्दांत क्या हैं यह कोई नहीं जानता। कुर्सी के लिए राम तक को त्यागने के आरोप से ग्रसित भाजपा के नेता धारा 370 से लेकर एक विधान तक को भूल चुके हैं। ऐसे में समय-समय पर बदलते सिध्दांत ने भाजपा को एक बार फिर कटघरे में खड़ा कर दिया है। मामला दिल्ली में होने वाले कामनवेल्थ गेम का है। अपने-अपने हितों के हिसाब से भाजपाई इस मामले में राग अलाप रहे हैं। इस मामले में भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व भी क्या सोचता है किसी को पता नहीं है।
भाजपा की हालत यह है कि कोई नेता नहीं है या फिर सत्ता और पदों में बैठे सभी नेता है जो अपने हितों के लिए नए-नए सिध्दांत गढ़ रहे हैं। क्वीस बेंटन के मामले में तो भाजपा की जितनी छिछालेदर हो रही है उतनी कभी नहीं हुई। छत्तीसगढ क़े मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने जहां क्वीस बेटन के स्वागत में कोई कसर बाकी नहीं रखा था तो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह यह कहकर क्वींस बेटन के कार्यक्रम का बहिष्कार कर गए कि उन्हें इसमें गुलामी दिखाई देती है जबकि उसके मंत्रिमंडल के सदस्य स्वागत कर रहे हैं।
भाजपा नेता यह कहकर पल्ला झाड़ सकते हैं कि सबकी अपनी सोच है लेकिन आम लोगों में जबरदस्त प्रतिक्रिया है। यही वजह है कि राम मंदिर मामले में भी सत्ता पाते ही यही रणनीति अख्तियार की गई थी। अब तो उसके देश प्रेम के मुद्दे पर ही सवाल उठने लगे हैं। ऐसे में कांग्रेसी यह कहें कि आजादी की लड़ाई में भाजपाई दूर क्यों थे तो किसी को बुरा नहीं लगना चाहिए?
रीमेक नहीं मौलिक बने छत्तीसगढ फ़िल्में
तपेश जैन
रायपुर। ''सास गारी देबे, ननद चुटकी लेबे, ससुरार गेंदा फूल'' हिन्दी फिल्म दिल्ली-6 में शामिल किए गए इस गाने ने छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति की पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कायन करने के साथ ही छत्तीसगढ़ी फिल्मों का भी नया जीवनदान दिया है। गाना सुपरहिट हुआ तो देश का ध्यान छत्तीसगढ़ी पर आकर्षित हुआ और सन् 2003 के बाद मरणासन् छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग को जैसे जीवनदान मिल गया। सन् 2009 में लंबे समय के बाद रिलीज हुई तीजा के लुगरा की आंशिक सफलता ने सतीश जैन को पुन: फिल्म बनाने प्रेरित किया और उन्होंने मया का निर्माण कर यह साबित किया कि छत्तीसगढ़ी फिल्मों के दर्शक है और अच्छी फिल्में लाभ प्रदान कर सकती है। इस मामले में डीजीटल टेक्नोलॉजी ने भी बड़ी भूमिका अदा की है। गौरतलब है कि पूर्व में बनी छत्तीसगढी फ़िल्मों की पिक्चर और वॉयल क्वालिटी ठीक नहीं होने से भी कारी जैसी अच्छी फिल्म नहीं चल पाई थी। सस्ती डिजीटल टेक्नोलॉजी ने न केवल पिक्चर की गुणवत्ता में सार्थक परिवर्तन आया बल्कि आवाज भी स्पष्ट हो गई। लेकिन मया की सफलता के बाद जो छत्तीसगढ़ फिल्म निर्माण की भेड़चाल शुरु हुई और बालीवुड फिल्मों के रीमेक के साथ नकल की परंपरा ने तीस से भी यादा असफल फिल्मों ने एक बार फिर इस बात पर चिंतन के लिए प्रेरित किया है कि दर्शक बालीवुड की नकल नहीं बल्कि मौलिक कहानियों पर आधारित फिल्में पसंद करते है और उन्हें अपनी भाषा में स्थानीय मनोरंजन के तत्व चाहिए। घिसे पिटे फार्मूले की हिन्दी फिल्मों की रीमेक छत्तीसगढ़ी फिल्मों में फ्रेम दर फ्रेम नकल यह दर्शाती है कि छत्तीसगढ़ी फिल्मों में मौलिक कहानियों का अभाव है और जो फिल्में बना रहे है उनका उद्देश्य कुछ और है। इस वजह से सन् 2000 के बाद बनी 30 से 40 फ्लाप फिल्मों ने मार्केट खराब कर दिया था। अब पुन: ऐसी स्थिति बन रही है कि कोई भी बिना तकनीक और फिल्म की भाषा शैली समझे मैदान में उतर गया है।
मया के बाद कुछेक फिल्मों ने एक-दो दिन बाद ही दम तोड़ दिया। प्रदर्शन के कुछ शो बाद ही दर्शकों को यह पता चल गया कि मस्ती के लिए फिल्म बनाई गई है। देखा जाए तो अभी तक एक भी ऐसी छत्तीसगढ़ी फिल्म नहीं बनी है जो अपनी कथा वस्तु की वजह से लोकप्रिय हुई हो। इन फिल्मों में फूहड़ हास्य और अश्लीलता का प्रयोग भी किया गया लेकिन सफल नहीं हो सका है। भोजपुरी फिल्मों की तरह छत्तीसगढ़ में द्विअर्थी संवाद और गाने पसंद नहीं किए जाते है इसलिए अच्छा तो यही होगा कि फिल्म का शिल्प समझकर छत्तीसगढ़ की ही मौलिक कहानियों पर फिल्में बने, नहीं तो पुन: इसका भविष्य अंधकार में होगा।

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