बजट और बहस...
सच कहूँ तो पिछले कई सालों से मेरी रूचि बजट पर कभी नहीं रही इसकी वजह मुझे भी नहीं मालूम? या यूं कहूँ कि मैं कभी समझ ही नहीं पाया कि सच कौन और झूठ कौन कह रहा है। सत्ता पक्ष बजट की तारीफ करते नहीं थकता और विपक्षी दल आलोचना चाहे सरकार किसी की भी रही हो।
इस साल भी केन्द्रीय और राज्य बजट को लेकर ऐसी ही प्रतिक्रिया है। हर साल महंगाई बढ़ रही है और आम आदमी का जीना दूभर होता जा रहा है। लेकिन आर्थिक सर्वेक्षणों में प्रति व्यक्ति आय लगातार बढ़ रही है। सर्वेक्षण का क्या तरीका है जो हर साल प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोत्तरी दिखाता है यह भी मेरे लिए यक्ष प्रश्न जैसा है।
सभी का कहना है कि यह दौर कठिन दौर है। लेकिन मैं जिस समाज में रहता हूँ वहां तो सालों से इसी दौर को देख रहा हूँ कुछ यह लोग गलत तरीके से पैसा कमा रहे हैं और जो लोग गलत रास्ता अख्तियार नहीं करते वे अपनी पूरी जिन्दगी संघर्ष करते गुजार रहे हैं।
बजट से आम आदमी को क्या फायदा और क्या नुकसान हो रहा है यह भी मैं नहीं समझ पाया? इस शहर ने तो देखा है कि कैसे अवैध कब्जों व अतिक्रमण ने शहर की व्यवस्था को चरमरा कर रख दिया है। सरकार किस तरह खेती की जमीन को लगातार उद्योगों या स्वयं के उपयोग के लिए नष्ट कर रही है। तालाब पाटकर कैसे काम्प्लेक्स खड़े किये जा रहे हैं और क्रांकिट के जंगल में तब्दिल होते लोगों के दिल भी क्रांकिट सा होता जा रहा है। क्या किसी सरकार के बजट में ऐसा प्रावधान हुआ है कि इससे मुक्ति मिलेगी?
इसका यह कतई मतलब नहीं है कि कानून में इसका प्रावधान नहीं है लेकिन जिस प्रदेश की आधी आबादी से ज्यादा लोग अपने व परिवार के दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हो कहां प्रति व्यक्ति आय 42 हजार से उपर कैसे हो सकता है। लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण ने यह कहा है तो होगा।
आम लोगों को उनकी जरूरत के मुताबिक व्यवस्था देने में सरकार की भूमिका क्या है? बजट में सिर्फ आवक-जावक की चिंता की जाती रही है और इन आंकड़ों के जाल में कौन सच कह रहा है। कौन झूठ? यह तो राजनीति करने वाले ही बता सकते हैं लेकिन बजट की राजनीति से परे हटकर भी बजट पर बहस होनी चाहिए।
हर बजट के पहले जमाखोरी और मुुनाफाखोरी के किस्से आम है लेकिन किसी भी सरकार ने इस दौरान अभियान चलाकर मुनाफाखोरी-जमाखोरी को रोकने की कोशिश नहीं की। बजट में तो कभी कोई चीज सस्ती होते दिखाई नहीं दी लेकिन बाजार में कभी कोई चीज का दाम कम नहीं हुआ। कभी लचीला तो कभी किसानों का तो कभी चुनावी बजट न जाने क्या-क्या नाम दिये गये। सरकार की बजट विपक्षियों के आलोचना की शिकार होते रही है। ऐसे में आम लोग किस पर यकीन करें यह यक्ष प्रश्न है?
-कौशल तिवारी
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