रविवार, 6 जनवरी 2013

किरण की करतब फिर फेल...


नगर निगम के पार्षद उपचुनाव में कांगे्रस हार गई। बैजनाथ पारा में कांगे्रस पहली बार नहीं हारी है लेकिन यहां से भाजपा पहली बार जीती है और वह भी तब जब निगम में कांगे्रस का कब्जा है। पार्षद जैसे चुनाव में हार जीत भले ही राजनैतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण न हो लेकिन कांग्रेसी महापौर किरण मयी नायक के लिए यह महत्वपूर्ण था क्योंकि टिकिट से लेकर सारी रणनीति में उनकी प्रत्यक्ष भागीदारी रही है। और इस हार की वजह उनकी रणनीति को मानी जाय तो गलत नहीं होगा।
वैसे भी किरणमयी नायक जिस दिन से महापौर बनी है निगम में कई तरह के इतिहास रचे गए है। उनके कार्यकाल में बÓाट प्रस्ताव तक गिर गया वह भी कांगेे्रस के ही पार्षद की बगावत की वजह से गिरा था। इसके बाद स्टेज में उनके रौद्र रूप को लेकर भी नागरिक हैरान थे। और अब उपचुनाव में मिली हार ने उनकी कार्यशैली पर फिर से सवाल खड़ा कर दिया है।
यह अलग बात है कि भाजपा के दिग्गज मंत्रियों ने यहां पानी की तरह पैसा खर्च किया लेकिन हार की सिर्फ यही एक वजह बताना सच से दूर भागना होगा।
निगम के बजट प्रस्ताव गिर जाने के बाद भी संगठन ने जिस तरह से उपचुनाव में उन पर भरोसा किया था। अब नये सिरे से इस पर सोचने की Óारूरत पड़ सकती है।
वैसे भी शहर का विकास कांगे्रस और भाजपा की राजनीति में उलझ कर रह गई है। बड़ी योजनाएं तो शुरू नही हो पा रही है। रोजमर्रा के कार्य तक ठीक से नही हो रहे है। बजबजाती नालियां, धूल भरी सड़क और भयावह म'छर से लोग परेशान हैै।
और पार्षदों का काम तो जैसे तैसे पैसा कमाने का रह गया है। खासकार पार्षद पतियों की दखलंदाजी चरम पर है। Óयादातर काम पार्षदपति ही कर रहे है। यहां तक कि जोन कार्यालय से लेकर मुख्यालय तक पार्षद पतियों का ही दखल है। अब तो निगम के कर्मचारी भी इन पार्षद पतियों से तंग आ चुके है और वे पार्षद पतियों के हरकतों पर चुहल बाजी करते नहीं थकते।
एक निगम कर्मचारी ने बताया कि सफाई ठेकेदार को एक पार्षद पति ने किस तरह हर माह पैसा देने का फरमान सुना दिया तो एक पार्षद पति ने अपने  रिश्तेदार को ठेका दिलाने अधिकारियों से कैसे भीड़ गया था। यह अलग बात है कि उसे बाद में अपने पार्टी के आकाओं को सफाई तक देनी पड़ी थी।
निगम में सिर्फ साफ सफाई का ही मामला नहीं है अब राजस्व वसूली में भी खेल होने लगा है। कई पार्षद तो राजस्व वसूली में हस्तक्षेप करने लगे है और टैक्स कम  करवाने में लगे हैं। जबकि टैक्स को लेकर निगम कर्मचारी भी अपनी चला रहे है।
सीनेट्री इंस्पेक्टरों का काम तो सिर्फ  दस्तखत करना ही रह गया है। कुछ की तो सुबह होटलों में ही बीत जाती है। पार्षद उपचुनाव के साथ ही निगम कर्मचारी महासंघ का भी चुनाव हुआ और अरूण दुबे और सुरेन्द्र दुबे फिर काबिज हो गये। अरूण दुबे के साथ सुभाष सोहाने के नाम की चर्चा भी एक बार गर्म है। आखिर कमिश्नर साराभाई वाली घटना को लोग कैसे भूल सकते  है।
वैसे भी अरूण दुबे की Óाुझारू शैली किसी से छिपी नहीं है। उनके तेवर से भी सभी  परीचित है। ऐसे में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से उनकी कितनी जमेगी देखना है।

मुंदी आंख से...

उपचुनाव में भाजपा की जीत से उत्साहित पार्षद दल ने महापौर से इस्तीफे की मांग कर डाली लेकिन यह मांग कुछ को भारी पड़ गई और चर्चा है कि उपर से इसके लिए फटकार भी लगाई गई। फटकार की वजह अब भी ढूंढा जा रहा है।

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