जैसे जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आने लगा है अखबार मालिकों ने अपना खेल शुरू कर दिया है। प्रसार बढ़ाने कुर्सी बांटने वाले भास्कर अब भी अपने को नंबर वन बता रहा है तो नवभारत, हरिभूमि और पत्रिका भी अपने को नम्बर वन बताते नहीं थकते ऐसे में पाठक किसे नम्बर वन माने? अब तो प्रसार बढ़ाने की होड़ में हर अखबार इनामी योजना से लेकर कुर्मी टेबल, हाट-पॉट टिफीन बांट रहे है। इस दौड़ में नई दुनिया भी शामिल है। हालांकि नई दुनिया का मालिक से लेकर संपादक तक बदल चुका है। दूसरी तरफ पत्रकारों की स्थिति भी यही है। अब उनकी पहचान कलम की बजाय बैनर से होती है। और अधिकारी से लेकर नेता भी बड़े बैनर माने जाने वाले अखबार के पत्रकारों को ही ज्यादा पूछ परख करते हैं।
ऐसे में जब चुनाव नजदीक हो तो विज्ञापन और पेड न्यूज की मारा मारी के चलते बड़े बैनरों के इन पत्रकारों पर दबाव भी बहुत है। और अब तो पत्रकारों की किमत भी बढऩे लगी है। बैनर बदलने के एवज में वेतन भी बढ़ रहा है। मुसिबत छोटे बैनर की बढ़ गई है क्योंकि छोटे बैनर के अच्छे पत्रकारों को बड़े बैनर वाले ज्यादा तनख्वाह देकर अपने यहां ले जाने लगे हैं।
इन सबके बीच छोटे बैनरों खासकर साप्ताहिक और मासिक पत्रिका निकाल रहे पत्रकारों की दिक्कतें भी इस चुनावी साल में बढऩे लगी है। क्योंकि बड़े बैनरों की अपनी सीमा हे और उन पर सरकार व जनसंपर्क विभाग का दबाव भी है जबकि इसके उलट छोटे बैनर वालों की पूछ तभी बढ़ती है जब वे दमदार खबर परोसते हैं।
हालांकि पत्रिका के आने के बाद बड़े अखबारों का तेवर भी बदला है लेकिन चुनाव तक यह तेवर बरकरार रहेगा इसे लेकर संशय जरूर कायम है। नंबर वन की दौड़ में शामिल पत्रिका को विधानसभा का पास नहीं दिये जाने को लेकर चर्चा भी खूब हो रही है और इसे सरकार के बदले की कार्रवाई का भौंडा प्रदर्शन माना जा रहा है। अब तक पत्रकारों को धमकाने का आरोप पुलिस और माफिया पर ही लगता रहा है लेकिन नंबर वन की दौड़
में शामिल पत्रिका को विधानसभा का पास नहीं दिये जाने को लेकर चर्चा भी खूब हो रही है और इसे सरकार के बदले की कार्रवाई माना जा रहा है।
अब तक पत्रकारों को धमकाने का आरोप पुलिस और माफिया पर ही लगता रहा है लेकिन इस बार एक मासिक पत्रिका से जुड़े अनिल श्रीवास्तव नायक पत्रकार ने जनसंपर्क के अधिकारी के खिलाफ सिटी कोतवाली में शिकायत की है। शिकायत किये एक माह हो गये लेकिन अभी तक जुर्म दर्ज भी नहीं हुआ है। यानी सरकारी दबाव जारी है।
और अंत में ...
मंत्रालय दूर होने से अफसरों को राहत तो मिली है लेकिन पत्रकारों की दिक्कत बड़ गई है। मंत्रालय के नाम पर समय व रूतबा झाडऩे वालों को अब अन्य सीटों पर मेहनत करनी पड़ रही है।
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