मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

छोटों की लड़ाई, जनसंपर्क में मलाई

वैसे तो कोई अखबार छोटा-बड़ा नहीं होता यह बात जिसके बारे में खबर छपती है उससे पूछा जा सकता है लेकिन छत्तीसगढ़ में जनसंपर्क विभाग ऐसा विभाग है जो अखबारों को छोटे-बड़े में नापता है। छत्तीसगढ़ जनसंपर्क ने अखबारों की मुख्यत: तीन श्रेणी बनाई है पहला नेशनल, भले ही प्रदेश के बाहर से निकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं का सुर्कुलेशन हजार-पांच सौ हो या छत्तीसगढ में 200 प्रतियां ही क्याें न बिकती हो वह नेशनल हो जाता है और उसे उसी ढंग से महत्व दिया जाता है। दूसरी श्रेणी में नवभारत, भास्कर, नई दुनिया जैसे अखबार होते हैं और तीसरी श्रेणी सांध्य दैनिकों या राय में छपने वाली साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक पत्र-पत्रिकाओं की है।
नेशनल हो या दूसरी श्रेणी के अखबार इन्हें जनसंपर्क विभाग से कभी दिक्कत नहीं होती और यदि हुई भी तो वे सीधे मुख्यमंत्री तक पहुंच जाते हैं लेकिन जनसंपर्क विभाग का रवैया तीसरी श्रेणी मानी जाने वाली पत्र-पत्रिकाओं के साथ इसी श्रेणी की होती है सरकार भी ऐसे लोगों के लिए कोई नीति नहीं बनाती परिणाम स्वरुप ये लोग सेटिंग में लग जाते हैं। आपस में लड़ाई भी इनमें यादा है इसलिए जनसंपर्क कुछ को दाना डाल अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। प्रदर्शन विज्ञापन इन्हें दिया जाता है वह भी 3-5 हजार में यदि किसी ने थोड़ी ताकत दिखाई तो दस हजार तक पहुंचा जा सकता है। ऐसे छोटे अखबार वाले जो जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों की चमचागिरी नहीं कर पाते वे अब एक मंच की तलाश में लगे हैं ताकि कोई विज्ञापन नीति बनाई जा सके।
और अंत में....
जनसंपर्क के नियमित सूची से हकाले गए एक साप्ताहिक समाचार पत्र के संपादक बेहद दुखी है और वे इस बारे में जनसंपर्क का पोल खोलने में इधर उधर खबर के लिए भटक रहे हैं ऐसे में विभाग में एक जगह उन्हें सलाह मिली कुछ नहीं कर पाओगे पैसा ऊपर तक पहुंचता है।

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