शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

विभागीय जांच के मायने...


हाईकोर्ट ने 16 साल से जारी विभागीय जांच को निरस्त कर दिया। पंचायत एवं ग्रामीण यांत्रिकी में पदस्थ सब इंजीनियर के एस राजपूत को पिछले 16 साल से विभागीय जांच के चलते न तो पदोन्नति का लाभ मिल रहा था और न ही अन्य सेवा का ही लाभ मिल रहा था।
यह खबर दिखने में जितनी छोटी है। मामला उतना ही गंभीर है। ऐसा नहीं है कि कोर्ट जाने से पहले राजपूत ने अपनी व्यथा मंत्री-अधिकारी से नहीं की होगी लेकिन जब संवेदनहीनता प्रताडऩा के हद तक बढ़ जाती है तब ही एक शासकीय सेवक को हाईकोर्ट का दरवाजा खटखराना पड़ा होगा.
यह सरकार के कार्य प्रणाली पर उंगली उठाने लिए काफी है। कोई व्यक्ति को 16 साल तक न्याय से वंचित रखना घोर आपत्तिजनक है। जनप्रतिनिधियों का काम यह भी है कि सरकारी सेवा करने वालों को प्रताडि़त न होना पड़े और उनके गड़बड़झालों की सजा तत्काल मिले लेकिन पैसों की भूख न नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत को भी तार-तार कर दिया है।
छत्तीसगढ़ में ऐसे सैकड़ों उदाहरण है जहां ईमानदारों को प्रताडि़त होना पड़ रहा है और बेईमानों को महत्वपूर्ण पदों से नवाजा जा रहा है। आई पीएस राहुल शर्मा से लेकर शशि मोहन सिंह जैसे कितने ही उदाहरण है जिन्हें उनकी ईमानदारी के चलते प्रताडि़त किया गया और मनोज डे से बाबूलाल अग्रवाल जैसे कितने उदाहरण है जिन पर आरोपं के बाद भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई।
हाईकोर्ट का यह फैसला एक नई रेखा तो खिंची ही है। सरकार में बैठे लोगों के लिए चेतावनी भी है कि ने विभागीय जांच समय सीमा में कर न्याय करें क्योंकि डीले जस्टिज नॉट ए जस्टिज होता है।
सरकार के द्वारा विभागीय जांच में विलंब से बेईमानों को बचने का मौका भी मिलता है। पंजीयक उपायुक्त की फाईल तो तब तक रोक दी गई जब तक वे रिटायर्ड नहीं हो गये। रोगदा बांध के आरोपी के तो स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति ही ले ली और भी ऐसे कई उदाहरण है जब सरकार ने जांच के नाम पर आरोपियों को बचाने व ईमानदारों को प्रताडि़त करने का उपक्रम किया है।
संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को तोड़ती हाईकोर्ट के इस फैसले ने ईमानदारों के लिए नया रास्ता खोला है कि आखिर एक आदमी को उसे मिलने वाले लाभ से 16 साल तक कैसे रोका जा सकता है।

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