मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

सभापति के समय की करनी, पंचायत में भरनी पड़ी...

यह तो कुत्ते की दुम... वाली कहावत को चरितार्थ करता है वरना जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में कांग्रेस की यह दुर्दशा नहीं होती। कई जिलों में बहुमत के बाद भी कांग्रेस की अध्यक्षीय गई तो इसकी वजह नेतृत्व की कमजोरी के साथ-साथ कांग्रेस में बड़े नेताओं की आपसी लड़ाई है। यही नहीं यदि कांग्रेस ने निगम में सभापति के चुनाव में सबक लेकर कड़ी कार्रवाई करती तो उसे यह दिन देखना नहीं पड़ता।
दरअसल छत्तीसगढ़ कांग्रेस में बिखराव की वजह बड़े नेताओं की आपसी गुटबाजी के अलावा प्रदेश अध्यक्ष का पिछलग्गू होना है। छत्तीसगढ़ में अजीत प्रमोद कुमार जोगी, मोतीलाल वोरा और विद्याचरण शुक्ल की लड़ाई जग जाहिर है। ऐसे में प्रदेश अध्यक्ष जब अपनी कार्यकारिणी ही नहीं बना सकता तो उनसे बहुत ज्यादा उम्मीद करना भी बेमानी है। यही वजह है कि लगातार चुनाव हारने से यहां के कांग्रेसी पस्त हो गए है और जब सत्ता की तरफ से जरा भी लालच दी जाती है वे बगावत करने से भी गुरेज नहीं करते ।
प्रदेश के दर्जनभर जिलों में कांग्रेस समर्थित प्रत्याशियों की संख्या भाजपा के मुकाबले अधिक थी लेकिन कांग्रेसी इन्हें संभाल नहीं पाए और 14 जिलों में भाजपा अपना अध्यक्ष बनाने कामयाब रही। यही स्थिति निगम चुनाव में भी रही और कांग्रेस को डेढ़ दर्जन स्थानों में अपने सभापति से वंचित होना पड़ा। क्रास वोटिंग को लेकर अध्यक्ष धनेन्द्र साहू ने तब भारी नाराजगी दिखलाई थी और जांच कमेटी भी बनाई गई लेकिन कांग्रेस की कमजोरी उजागर हो गई राजधानी के पार्षदों ने तो मोबाईल के कॉल डिटेल तक नहीं दी और उन पर किसी ने कार्रवाई की हिम्मत नहीं दिखाई। शायद यही वजह है कि जिला पंचायत के चुनाव में कांग्रेसियों ने पार्टी के नेताओं की परवाह नहीं की और लालच में भाजपा को वोट दे दिया।
कांग्रेस की इस दुर्दशा के लिए प्रदेश अध्यक्ष धनेन्द्र साहू और मोतीलाल वोरा द्वारा गठित कार्यकारिणी अपनी जिम्मेदारी से कैसे बचेंगे यह सवाल निष्ठावान कांग्रेसियों में चर्चा का विषय है। बहरहाल छत्तीसगढ क़ांग्रेस में हो रही इस बिखराव पर राष्ट्रीय नेतृत्व ने ध्यान नहीं दिया तो हालत और बदतर होगी जिसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ेगा।

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