सोमवार, 14 जून 2010

वेदांता की दादागिरी,गैस त्रासदी पर न्याय?

न्याय प्रणाली को लेकर इन दिनों पूरे देश में बहस चल पड़ी है। प्रक्रिया से विलंब होते फैसले ने नैसर्गिक न्याय के सिध्दांत को तो पीछे छोड़ा ही है आम लोगों का विश्वास भी तोड़ा है। पिछले दिनों न्यायालय के दो फैसले ऐसे आए जिन पर आम जनमानस कहीं से भी सहमत नहीं है और लोकतंत्र के लिए ऐसे फैसलों को उचित भी कैसे माना जा सकता है जिस पर आम लोग ही सहमत न हो।
पहला फैसला छत्तीसगढ क़े न्यायालय से आया कि बालकों ने जो 6 सौ एकड़ सरकारी जमीन पर कब्जा कर रखा है उसे सरकार पैसा ले कर बालको को उपयोग के लिए दे दे। इस पर आम आदमी अवाक है कि अपने लिए अशियाना बनाने वालों को हटा देने वाली सरकार किस तरह से बालको को कोर्ट के फैसले की आड़ पर जमीन देने आमदा है। ऐसी बेशर्मी बहुत कम देखने को मिलती है लेकिन छत्तीसगढ सरकार ने कुछ एक मंत्रियों की असहमति के बाद भी बालको को उसके अवैध कब्जे को देने आमदा है। संवैधानिक व्यवस्था के तहत बने सरकारों को ऐसे फैसलों से इसलिए रोकना चाहिए क्योंकि छत्तीसगढ़ की रमन सरकार को जनादेश नहीं मिला है वह 40-42 प्रतिशत वोट पाकर सकरार बना सकी है यानी उसके खिलाफ 58 से 60 प्रतिशत लोग हैं। ऐसी दशा में नीतिगत फैसले की बात ही बेमानी है।
दूसरा फैसला भोपाल गैस कांड का है और यहां भी भाजपा की सरकार ही बैठी है और जिस तरह से 15 हजार मौतों पर 2 साल की सजा सुनाई गई उससे लोक आवक है। हम यहां यह नहीं कह रहे हैं कि ऐसे फैसले सिर्फ भाजपा शासित रायों में हो रहे हैं और न ही हम यह कहते हैं कि न्यायालय का फैसला ही गलत है लेकिन न्यायप्रणाली के इस दो फैसलों ने आम लोगों में सवाल तो खड़ा किया ही है कि क्या बालको का अवैध कब्जा उचित है और आम आदमी के द्वारा किया गया कब्जा गलता है। क्या उद्योगों और आम आदमी के जमीन कब्जे अलग-अलग श्रेणी में आते हैं तो फिर समान न्याय की बात कहां होगी। ऊपर से न्यायालय के फैसले के बाद डॉ. रमन सरकार ने जिस बेशर्मी से बालको को जमीन देने आमदा दिखी वह सरकार की नीति और नियत बताने के लिए काफी है। एक तरफ राजधानी में पीढ़ियों से व्यापार करने वालों को हटाने की बात की जा रही है और दूसरी तरफ बालको को जमीन देने की बात हो रही है यह सरकार की नीति अंधेरगर्दी नहीं तो और क्या है। ऐसे में अरूंधति राय यदि नक्सलियों का समर्थन करती है तो यह उसकी हिमाकत तो है लेकिन गांधी के देश में उसकी प्रासंगिता पर भी सवाल उठने लगेंगे। सरकार अंधेरगर्दी बंद करे वरना जनता का फैसला नई मुसीबत खड़ी सकती है।

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