गुरुवार, 24 जून 2010

शराब बंदी और खिलाफत

पिछले दिनों गायत्री परिवार के लोगों ने पत्रकारों को बताया कि वे जेल में बंदियों को गायत्री मंत्र सिखा रहे हैं और जेलों में वाचनालय स्थापित कर रहे हैं ताकि गलत कार्यों से लोगों का ध्यान हटे नि:संदेह गायत्री परिवार की यह कोशिश सराहनीय है। गायत्री परिवार के लोग शराब के खिलाफ भी जनजागरण अभियान चला रहे हैं इसी तरह का जनजागरण अन्य कई संस्थाएं भी चला रही है। इन संस्थाओं का मानना है कि उनके जनजागरण अभियान से लोग शराब पीना छोड़ देंगे। कुछ लोग छोड़ भी रहे होंगे। दरअसल इस तरह की संस्थाओं का आशावादी दृष्टिकोण आश्चर्यजनक है शराब के खिलाफ बरसों से इस तरह के जनजागरण चलाने वालों को इसका परिणाम तो पता है लेकिन वे फिर भी जनजागरण चला रहे हैं कुछ सरकारी अनुदान प्राप्त संस्था हैं तो कुछ लोग शराब के खिलाफ ऐसे अभियान के बहाने अपना नाम को प्रसिद्ध कर लेना चाहते हैं।
गायत्री परिवार किसी नाम का मोहताज नहीं है लेकिन उनके कार्यकर्ताओं को यह बात समझनी होगी कि सिर्फ जनजागरण से शराब बंदी हो जाती तो 50 सालों से चल रहे जनजागरण अभियान के बाद शराब पीने वालों की संख्या में हर साल ईजाफा नहीं होता। ऐसा ही अन्य संस्थाओं को भी यह बात समझनी होगी। दरअसल यह सारा खेल प्रदेश को मिलने वाले राजस्व का नहीं है बल्कि शराब दुकानों के खोलने में शराब ठेकेदारों द्वारा मंत्रियों-नेताओं से लेकर अधिकारी-कर्मचारियों को बांटे जाने वाले राजस्व का है। नेता-अधिकारी यह बात जानते हैं कि ऐसे जनजागरण से शराब बंद नहीं होगा इसलिए वे जनजागरण अभियान की दुहाई देते हैं जबकि यह सच्चाई है कि सरकार बेचना बंद करेगा तभी लोग पीना बंद करेंगे लेकिन वोट बैंक की राजनीति और पैसा कमाने की भूख ने इन विनाशकारी को जीवित रखा है।
सरकार शराब बेच रही है लोग जनजागरण चला रहे हैं आखिर यह कब तक चलेगा। इसलिए ऐसी संस्थाएं जो सचमुच शराब बंदी चाहते हैं वे यदि मुख्यमंत्री निवास का जमकर घेराव कर दे तो सरकार मजबूर हो सकती है। छत्तीसगढ़ में ही गायत्री परिवार के लाखों लोग हैं इसी तरह दूसरी संस्थाएं भी हैं यदि वे एक दिन तय करके संघर्ष की घोषणा कर दें तो सरकार जनजागरण की दुहाई देना बंद कर देगी। दरअसल सरकार ही नहीं चाहती कि शराब बंदी हो इसकी वजह वह राजस्व को बताते नहीं थकती लेकिन आम लोगों को यह समझना होगा कि राजस्व बहाना है असली वजह तो शराब ठेकेदारों से मिलने वाला कमीशन है जो राजस्व से कहीं ज्यादा नेताओं और अधिकारियों को मिलता है।

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