पर उपदेश कुशल बहुतेरे…
पर उपदेश कुशल बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे ।। — गोस्वामी तुलसीदास जी ने यह बात कही थी जिसका अर्थ है दूसरों को उपदेश देना तो बहुत आसान है लेकिन स्वयं उन उपदेशों पर अमल करना बेहद कठिन है, लेकिन इन बातों को याद करने का मतलब मोदी के दौर में इसलिए बेमानी हैं क्योंकि पिछले दस सालों से जो सरकार कारपोरेट के आसरे विदेशी पूँजी और विदेशी सामनों से इस देश को अपने अनुकूल करने में लगा था जिसने नफ़रत का बाज़ार तैयार कर देश को ही नहीं संसद जैसे पवित्र स्थान में वैमनस्यता की दीवार खड़ी कर दी उसे अचानक हिंदुस्तानियों का पसीना कैसे याद आया , हालाँकि यह देर आये वाली कहावत मान ख़ुशी मनाई जा सकती है लेकिन पिछले ११ सालों की नौटंकी को देखते हुए या संघ की नीति को समझते हुए इस पसीने की बात पर विश्वास करना मुश्किल है, संसद कैसे बदल गया और पर उपदेश की कहावत को सरल भाषा में समझिये…
कुछ लोग बोल रहे हैं कि
मोदी जी जर्मनी का मांटब्लैक पेन, इटली का बना मैबैक चश्मा, स्विट्जरलैंड की बनी रोलेक्स घड़ी, अमेरिका में बना आइफोन, जर्मनी की बनी बीएमडब्लू कार, अमेरिका में बना बोईंग हवाईजहाज इस्तेमाल करते है ।
उनको मैं बोलना चाहूंगा कि मोदी जी देश हित मे विदेशी ब्रांडेड सामान उपयोग करते हैं । अरे देश को विदेशी निवेश भी तो चाहिये । अगर कोई विदेशी सामान यूज ही नही करेगा तो दूसरे देश हमारे देश मे निवेश क्यों करेंगे ?
इसीलिये मोदी जी को विदेशी सामान यूज करने दीजिए ।
स्वदेशी को अपनाने की जिम्मेदारी आपकी और हमारी है ।
अब 11 साल पहले के संसद पर बात करें उससे पहले इस खबर पर…
जिस कुर्सी पर बैठने का अधिकार मुझे मिला है उस कुर्सी पर मै अपने किसी भी खून के रिश्ते को बैठने की इजाज़त दूंगा। ये एक इमोशनल हिस्सा है किसी भी कामयाब इंसान के जिंदगी का।
अगर उस थाना प्रभारी ने अपने खून के रिश्ते को अपनी ही कुर्सी पर बैठा लिया तो कौन सी बड़ी बात हो गई? रिश्वत लेकर कुर्सी का ईमान बेचने से क्या नियम नहीं टूटता?
अब संसद पर…
सन दौ हज़ार के आसपास संसद मैदान का माहौल खुशनुमा होता था । हँसी मज़ाक संजीदगी मुद्दे पे बात तर्क वितर्क सब था । वाजपई जी मुल्क के मुख्या थे, संजीदा आदमी थे लेकिन हर माहौल के हिसाब से सेट हो जाते थे । लालू प्रसाद यादव उसे वक़्त सबसे ताकतवर बोलकार थे, बोलने में माहिर थे दलील देना जानते थे सीधा मुद्दे पर बोलते थे, कभी कभी अपनी ज़बान से वो माहौल तब्दील कर देते थे, तरफ़दार और विरोधी खेमा दोनों लालू जी की बातों पर ठहाका लगा देता था, लालू जी का हुकूमत पर हसमुख हमला वाजपई जी को गुदगुदा देता था, वाजपई जी खुलकर हँसते थे, उनके ठीक पीछे उस वक़्त देश की रक्षा के ज़िम्मेदार जॉर्ज फ़र्नान्डिस भी लालू जी के तर्क पर मासूमाना हँसी हँसते थे, फ़र्नान्डिस लालू जी के सियासी गुरु रहे । उस दौर में हुकूमत के जितने बड़े रहे सब पर लालू जी के लफ्ज़ो का असर था, संजीदगी हँसना हँसाना तर्क वितर्क सब था, सख्त कोई नहीं था आज बीस बरस बाद मुल्क के संसद भवन के हालात बिलकुल बदल गए हैं , अब हुकूमत से सवाल पूछने पर जवाब मांगने पर गालियाँ दे दी जाती हैं, बुरे लफ्ज़ कहे जाते हैं पिछले बरस रमेश बिधूड़ी ने हदे लांग दी थी, कल भी जब संसद भवन में बहस हुई सिर्फ हाथापाई की कमी रही, बाकी सब हो गया, मुल्क के सबसे मज़बूत किले का एहतराम और तहज़ीब बिलकुल ख़त्म हो गयी है, क़सूरवार सब भवन में बैठे हैं, पक्ष विपक्ष सब ज़िम्मेदार हैं मुल्क को लेकर कोई संजीदा नहीं है कोई समझदार नहीं है । इस दौर की संसद भवन में बदज़ुबानी सुनकर थक गए हैं तो बीस बरस पहले की बहस यूट्यूब पर देख लीजिये, सवाल जवाब सब होते थे लेकिन किसी को शर्मिंदा नहीं किया जाता था, एहतराम था, ख़िलाफ़ होते हुए एक दूसरे की इज़्ज़त थी । आज कल तो संसद भवन में पगड़ियाँ उछाल दी जाती हैं । (साभार)
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