लोकतंत्र का मंदिर माने जाने वाले विधानसभा के सचिवालय में ही जब अनियमितता व भ्रष्टाचार जमकर हो रहा हो तो सरकार से किसी और तरह के न्याय की उम्मीद ही बेमानी हो जाती है। यह हाल है छत्तीसगढ़ विधानसभा के सचिवालय की जहां सिर्फ और सिर्फ देवेन्द्र वर्मा की चलती है। नियुक्ति से लेकर पदोन्नति और निर्माण से लेकर तोड़फोड़ में हुए घपलेबाजी चिख-चिख कर न्याय मांग रही है लेकिन न सरकार को सुनाई दे रहा है और न ही विधानसभा अध्यक्ष ही कुछ कर पा रहे हैं। छत्तीसगढ़ राय के गठन के दौरान किसी ने सपने में भी नहीं सोचा रहा होगा कि विधानसभा के सचिव और सचिवालय ही भ्रष्टाचार का अड्डा बन जायेगा। विधानसभा सचिवालय ही जब भ्रष्टाचार की जननी हो तो बाकी विभागों के बारे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता हैं।
हमारे भरोसे मंद सूत्रों का कहना है कि विधानसभा सचिवालय में भ्रष्टाचार व अनियमितता की कहानी तो तभी शुरू हो गई थी जब अनुसंधान अधिकारी के पद पर रहे देवेन्द्र वर्मा को मध्यप्रदेश आबंटित होने के बाद छत्तीसगढ़ में ही इस दलील के साथ रोक लिया गया कि नये नवेले छत्तीसगढ़ को अनुभव वाले व्यक्ति की जरूरत है लेकिन किसे पता था कि देवेन्द्र वर्मा अपने अनुभव का इस तरह से इस्तेमाल करेंगे कि लोकतंत्र का यह मंदिर भी कलंकित होने से नहीं बच पायेगा?
इतना ही नहीं देवेन्द्र वर्मा पर सरकार की जबरदस्त मेहरबानी रही और उन्हें कुछ ही सालों में न केवल सचिव बना दिया गया बल्कि चार-चार बार तदर्थ पदोन्नति दी गई। जबकि देवेन्द्र वर्मा मध्यप्रदेश सचिवालय के अधीन कर्मचारी है और उन्हें पदोन्नति भी मध्यप्रदेश से दी जानी थी लेकिन आश्चर्यजनक रूप से उन्हें पदोन्नति छत्तीसगढ सरकार द्वारा दी गई।
देवेन्द्र वर्मा पर इतनी मेहरबानी की वजह तो सरकार की बता पायेंगे लेकिन हमारे सूत्रों का दावा है कि कई सचिव से लेकर विधायकों तक ने देवेन्द्र वर्मा की शिकायत सरकार से की है लेकिन सारी शिकायतों को अनसुना कर वही किया गया जो देवेन्द्र वर्मा चाहते हैं। आश्चर्य का विषय तो यह है कि देवेन्द्र वर्मा को चार बार दी गई तदर्थ पदोन्नति के दौरान सचिवालय सेवा अधिनियम को ताक पर रखा गया और लोगों का दावा है कि जिस तरह से इस मामले में सरकार की मेहरबानी रही वह ग्रिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में शामिल करने लायक है।
देवेन्द्र वर्मा की पहली तदर्थ पदोन्नति 6 जुलाई 2001 को उपसचिव के रूप में की गई इसके बाद 13 अप्रैल 2002 को संचालक बना दिया और इसके बाद 21 जनवरी 2003 को फिर पदोन्नति देते हुए उन्हें अवर सचिव और 9 जुलाई 2004 को विधानसभा का सचिव बना दिया गया 3 साल 3 दिन में 4-4 पदोन्नति दी गई और सभी आदेश में तदर्थ पदोन्नति व अस्थाई रूप से पदभार ग्रहण बताया गया।
आश्चर्य का विषय तो यह है कि मध्यप्रदेश राजपत्र (असाधारण) जो यह दर्शाता है कि देवेन्द्र वर्मा मध्यप्रदेश में 1-11-2000 की स्थिति में पदस्थ थे और उनका वरिष्ठता क्रमांक 30 था। यही नहीं छत्तीसगढ में देवेन्द्र वर्मा को जब सचिव बनाने की तैयारी कर ली गई थी उसके दो माह पहले 11 मई 2004 को मध्यप्रदेश विधानसभा सचिवालय की अंतिम आबंटन सूची में देवेन्द्र वर्मा को अनुसंधान अधिकारी ही बताया गया जबकि वे इस आबंटन सूची के दौरान छत्तीसगढ़ में अपर सचिव बनाये जा चुके थे।
देवेन्द्र वर्मा की कहानी यहीं खत्म नहीं होती इस सरकारी मेहरबानी का इन पर बेजा इस्तेमाल करने, नौकरी में गड़बड़ी से लेकर विधानसभा में छोटे-मोटे निर्माण कार्यो पर घपले बाजी के आरोप भी है। बहरहाल देवेन्द्र वर्मा पर लगते आरोप ने सरकार की नियत पर तो सवाल उठाया ही है लोकतंत्र के इस पवित्र मंदिर पर दाग लगाने की कोशिश की है।
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