इन दिनों पूरे देश में यह बहस चल रही है कि सांसदों के वेतन भत्ते बढऩा चाहिए या नहीं बढऩा चाहिए। हमने आम आदमियों के बीच यह सवाल उठाया तो अब तक हमें एक भी व्यक्ति नहीं मिला जिन्होंने सांसदों के वेतन भत्तों में बढ़ोत्तरी पर सहमत हो। आखिर सांसद और विधायकों को वेतन क्यों? क्या जनसेवा के बदले मेवा वे सरकारी खजानों से कब तक लेते रहेंगे। आश्चर्य का विषय तो यह है कि जिंदल से लेकर हेमामालिनी तक को वेतन भत्ते और पेंशन चाहिए?
सांसद-विधायक अब पूरी तरह से व्यवसायी हो चुके हैं। समाज सेवा के बदले उन्हें मोटी तनख्वाह चाहिए और पेंशन भी चाहिए? ऐसा तो यह देश कतई नहीं था। फिर आजादी के सिर्फ 63 साल में ऐसा क्या हो गया कि सांसद विधायक नौकरों की तरह वेतन के लिए इतने लालायित हैं? आम लोगों ने तो कभी नहीं चाहा कि उनके जनप्रतिनिधि वे व्यक्ति बने जिनके लिए वेतन सर्वोच्च प्राथमिकता है और जिन लोगों को अपनी सेवा करानी होती है वे अपने हैसियत के अनुसार नौकर रख लेते हैं। ऐसे में आम आदमी के गाढ़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा मिल बांटकर डकारने की इस कोशिश को क्या कहेंगे।
दुखद स्थिति तो यह है कि अपने को समाजसेवी कहने वाले सैकड़ों सांसदों और हजारों विधायकों में से एक भी ऐसा नहीं है जो वेतन भत्ते या पेंशन नहीं लेने की घोषणा कर दे। 'माल ए मुफ्त दिल ए बेरहम' की तर्ज पर हम दो चार साल में वेतन भत्तों में बढ़ोत्तरी के लिए जरूर ये लोग लामबंद हो जाते हैं तब न पार्टी प्रतिद्वंद्विता ही आड़े आती है और न ही सिद्धांत मायने रखते हैं। आज भी इस देश में ऐसी पीढ़ी मौजूद है जो बगैर वेतन के समाजसेवा में लगे हैं। राजनीतिक दल ऐसे लोगों को अपनी पार्टियों में शामिल ही नहीं करना चाहते? हमारे बहुत से मित्र सांसद-विधायक है? उनका कहना है कि ऐसी घोषणाएं करने पर पार्टी निकाल बाहर करेगी? क्योंकि अमूमन सभी पार्टियों में यह परिपाटी है कि सांसद-विधायक अपने वेतन का एक हिस्सा पार्टी फंड में दे। पार्टी फंड में पैसा जमा होते होते यह स्थिति है कि पार्टियों के पास इफरात धन संपत्ति जमा हो गई है और देश खोखला होता जा रहा है।
कांग्रेस हो या भाजपा, माकपा हो या लोकदल, जनता दल आप किसी भी पार्टी का नाम ले लिजिए। इनकी चली तो पार्टी कार्यालय के नाम पर सरकारी जमीनों का जमकर बंदरबाट हुआ। जिला या प्रदेश स्तर तो छोड़ दिजिए कस्बों तक में कौडिय़ों के मोल सरकारी जमीनें इन राजनैतिक दलों को दी गई। देश की इस विषम स्थिति में जब आम आदमी को दो वक्त का खाना ठीक से नसीब नहीं हो रहा है। पीने का पानी नहीं मिल रहा है और स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में दुरस्थ अंचल के लोग बेमौत मारे जा रहे हैं तब भला हमारे सांसदों की वेतन में बढ़ोत्तरी के लिए तीन-पांच करना निकृष्ठता नहीं तो और क्या है?
हमारा यह महाअभियान ऐसे ही अंधेरगर्दी के खिलाफ है। हम चाहते हैं सांसदों-विधायकों के वेतन-पेंशन बंद हो और जिन्हें डाक्टरों ने समाजसेवा करने कहा है वे बगैर वेतन का समाजसेवा करे। हम आम लोगों में यही जागरूकता पैदा कर रहे हैं कि वे अब ऐसे लोगों को ही अपना प्रतिनिधि चुने जो वेतन पेंशन नहीं लेने की घोषणा करें।
सही कहते और लिखते हैं आप
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