छत्तीसगढ़ राज्य को बने दस साल हो गए इनमें से अधिकांश समय भाजपा की सरकार रही है। दस साल में विकास के ढिंढोरे पीटे जा रहे हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या वास्तव में छत्तीसगढ़ का समुचित विकास हुआ है। या फिर सिर्फ शहरी क्षेत्र में ही विकास को विकास मान ले। क्या रमन सरकार के पास इस बात का जवाब है कि उसने अपने सात साल के शासन में कितने गांवों को साफ पीने का पानी मुहैया कराया है या फिर ऐसे कितने गांव है जहां के हर खेत को सिंचाई का पानी मिल रहा है। कितने गांव है जहां स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराई गई है। या फिर सर्वसुविधायुक्त बसाहट की गई है। छत्तीसगढ़ के गांवों की हालत बदतर है। स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बदतर है लोग मलेरिया से मर रहे है। मृतकों की संख्या सैकड़ों-हजारों पहुंच रही है लेकिन सरकार का इस ओर जरा भी ध्यान नहीं है। शहर में रहने वालों को हर तरह की सुविधाएं मुहैया है लेकिन गांव के लोगों को पीने का साफ पानी तक सरकार मुहैया नहीं करा पा रही है। मुख्यमंत्री के जिले के गांवों तक की हालत बदतर है। छोटी-छोटी बीमारी के ईलाज के लिए लोगों को कई किलोमीटर चल कर आना पड़ता है। अभियान या शिविर के नाम पर सिर्फ भ्रष्टाचार और खानापूर्ति की जा रही है।
खेती जमीन का रकबा लगातार घट रहा है। ग्रामीण आबादी सुविधा के अभाव में शहर की ओर कूच कर रहे हैं जिनकी वजह से शहर भी अव्यवस्थित होने लगा है लेकिन सरकार के पास गांवों के सुनियोजित विकास की न तो कोई सोच है और न ही कोई फार्मूला ही है। ऐसे में कोई सरकार विकास का दंभ कैसे भर सकती है। राजधानी से लगे गांवों तक की हालत खराब है उल्टे सडक़ों से गांवों को जोडक़र शोषण के रास्ते खोले जा रहे हैं यही नहीं आम लोगों को सुविधा उपलब्ध कराने की बजाय मुफ्त के बंदरबांट कर ग्रामीणोंं का आक्रोश शांत करने की सरकारी योजनाएं अंग्रेजों के फूट डालो राज करों की नीति से भी भयावह है? क्या क्षेत्रीय विधायकों को यह नहीं लगता कि उनके गांव वाले भी नलो से साफ पानी पिए, घरों में लेट्रिंग-बाथरुम हो और हर खेत में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराई जाए। यदि गांव वाले इस मांग पर अड़ जाए तो क्या होगा। आजादी के 6 दशक बीत चुके है लेकिन गांव वालों को सुविधा के नाम पर जिस तरह से लालीपॉप पकड़ाया जा रहा है। क्या अब ग्रामीण विकास के लिए नई आजादी की लड़ाई की जरूरत नहीं है। आश्चर्य का विषय तो यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों से चुनकर आने वाले सांसद व विधायक भी गांवों के समुचित विकास की चिंता नहीं कर रहे हैं और दलगत राजनीति में उलझकर अपनी चिंता में ज्यादा लगे है। पैसा व पद आने के बाद शहरों में बस जाने की महत्वकांक्षा ने इन्हें निष्ठुर बना दिया है। बल्कि संवेदना शून्य कर दिया है ऐसे में गांवों को सुविधा उपलब्ध कराने क्या आंदोलन ही रास्ता बचा है।
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