गुरुवार, 22 मार्च 2012

हां सरकारी स्कूल में पढऩे वाले नक्सली बनते हैं


हालांकि श्री श्री रविशंकर जी ने अपनी बातों से पलटी खा रहे हैं और खुद को सरकारी स्कूल का छात्र भी बतला गये। लेकिन आज इस पर बहस इसलिए जरूरी है क्योंकि वे बात जब चर्चा का विषय बन चुका है।
हम भी मानते हैं कि किसी स्कूलों में बढऩे वाले बच्चे कभी नक्सली नहीं बन सकते क्योंकि निजी स्कूल में वहीं पढ़ते हैं जिनके घर खाने-पीने की इतनी सुविधा तो होती ही है कि भूखा मरने की नौबत न आये। लेकिन सरकारी स्कूल में पढऩे वाले बहुत से बच्चे ऐसे हैं जिन्हें सरकार स्कूलों में दाल-भात न दें तो स्कूल ही न जा सके। हथियार वहीं उठाते हैं जिनका जीवन संघर्षमय होता है और यह निजी स्कूलों के बच्चों में कहां मिलेगा।
इस देश में सरकारी स्कूलों की स्थिति बदहाल है हम इस पर चर्चा फिर कभी कर सकते हैं फिलहाल तो चर्चा श्रीश्री रविशंकर जी के उस विचार पर करना जरूरी है जो निजी स्कूलों के माफियाओं के लिए मददगार हो सकती है। यह तो इंटरनेट के जमाने की वजह से इस पर तत्काल प्रतिक्रिया हुई और श्रीश्री रविशंकर से लेकर रामदेव बाबा तक यह कहने लगे कि आशय यह नहीं था।
दरअसल हमें देश के बाबाओं पर कभी इस बात का भरोसा ही नहीं रहा कि वे देश सुधारेंगे। वरना उनके पीछे लगने वाली भीड़ जो ज्यादातर ऐसे लोगों की होती है जो गलाकाट कर पैसा कमाने में भरोसा करते हैं, कब के सुधर गये होते।
भले ही धर्म को अफीम बताने वाले की आलोचना होते रही हो लेकिन वास्तविकता इससे परे नहीं। सत्ता और पैसे वालों की गोद में बैठने वाले बाबाओं को इन दिनों राजनीति करने का भूत सवार है। इंदिरा गांधी के जमाने के धीरेंद्र ब्रम्हचारी से लेकर चन्द्रा स्वामी और अब तक के सफर में हमने बड़े से बड़े बाबाओं को देखा लेकिन इनमें से किसी ने हमारे पौराणिक कथाओं में विद्यमान ऋषि मुनि सा नहीं है जो महलों को छोड़ कुटिया का ही अतिथ्य स्वीकार करते थे।
वैसे पैसे वालों के बीच प्रवचन करते बाबाओं में भी पैसे की भूख तो बढ़ी ही है उनकी सोच भी पूंजीवादी हो गई है। उन्हें निजी स्कूलों की न तो बुराई दिखती है और न ही अपराधियों के साथ घुमने में ही परहेज लगता है। रायपुर प्रेस क्लब में ही रामदेव बाबा के साथ बैठे धन्नासेठ की हकीकत पर बाबा के पास कोई जवाब नहीं था।
वैसे भी हमें इन बाबाओं पर समाज सुधारने का भरोसा नहीं है। इसलिए श्रीश्री रविशंकर ने ऐसा नहीं कहने का दावा लाख कर लें लेकिन हम जानते हैं कि अभाव में रहने वाले अभिभावक के बच्चे ही सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। और जब समाज और सरकार से न्याय नहीं मिलता तो वे अपनी आखरी ताकत पत्थर या बंदूक उठाने में लगाते हैं।
निजी स्कूल तो वहीं खुलते हैं जहां उनकी कमाई हो सके। इसलिए सरकारी स्कूल को बंद करना एक पूरे ऐसे वर्ग के साथ नाइंसाफी होगी जो पहले ही सामाजिक रुप से प्रताडि़त है।

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