गुरुवार, 5 सितंबर 2024

और कितनी बे-इज्जती…

 और कितनी बे-इज्जती…


गोस्वामी तुलामी दास ने कहा है कि आवत ही हर्षय नहीं 

नैनन नही सनेह, 

तुलसी तहां न जाइए

कंचन बरसे नेह ।

इतनी सी बात यदि स्वार्थ में अंधा हो चुके व्यक्ति को समझ में नहीं आता तो क्या ऐसा व्यक्ति खुद अपनी बेईज्जती के लिए जिम्मेदार नहीं है?

यह सवाल इन दिनों छत्तीसगढ़ की राजनीति में आदिवासी नेता नंद कुमार साय के भाजपा प्रवेश को लेकर उठ रहा है तो यकीन मानिये कि अब भी ऐसे लोग हैं जो मान-सम्मान के नाम पर धन-दौलत और कुर्सी को लात मारने का माद्दा रखते हैं।

दरअसल नंद कुमार साय ने विधानसभा चुनाव से पहले उस भाजपा को लतिया दिया था जिस भाजपा ने उन्हें मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य का अध्यक्ष बनाया था, विधायक से लेकर सांसद तक बनवाया था तो केन्द्र में भी सर आंखों पर बिठाया था। राज्य बनने के बाद एकात्म परिसर में बृजमोहन अग्रवाल के समर्थकों की गुण्डईं के बाद भी नेता प्रतिपक्ष बनाया था। यानी भाजपा ने 'नंद कुमार साय - लखीराम की गाय' जैसे नारों का  परवाह नहीं कर कई महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया था । लेकिन सत्त्रा जाते ही नंद‌कुमार साय ने भूपेश बघेल के प्रभामंडल में आकर पार्टी छोड़ दी।

मजेदार बात तो यह है कि कांग्रेस के हारते ही वे कांग्रेस भी इस आशा से छोड़े होंगे कि उन्हें भाजपा सिर माथे पर बिठा लेगी लेकिन सत्ता अब उन्हीं विष्णुदेव साय और पवन साय के हाथ में हैं जिन्होंने नंदकुमार को कांग्रेस में नहीं जाने के लिए मनाने घर तक गये थे ।

ऐसे में पिछले दरवाजे यानी मिस कॉल के जरिये भाजपा की सद‌स्यता हासिल करने की कोशिश पर यदि बवाल मचा है या चर्चा चल रही है तो इसकी वजह नंद कुमार की करतूत ही जिम्मेदार है।

कहा जाता है कि एक उम्र के पड़ाव में आकर यदि आद‌मी अपनी इज्जत का ध्यान न रखे तो छिछालेदर होना तय है।

कहते भी है कि आद‌मी अपनी बेइज्जती के लिए स्वयं जिम्मेदार होता है। अच्छा खासा पेंशन तो मिल ही रहा होगा तो फिर भी कोई अपनी बेइज्जती कराए तो इसे क्या कहा जाये ?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें