सोमवार, 29 मार्च 2010

क्या कानून से विश्वास उठ गया...




इन दिनों छत्तीसगढ़ में अजीब किस्म की पत्रकारिता चल रही है तो इसकी वजह पत्रकारिता का ग्लैमर है। समय-समय पर कानून का पाठ सीखाने वाले अखबार अब कानून हाथ में लेने की न केवल वकालत कर रहे हैं बल्कि आम लोगों को प्रेरित भी कर रहे हैं। पिछले दिनों राजधानी से प्रकाशित हो रहे सांध्य दैनिक छत्तीसगढ ने कानून हाथ में लेने से संबंधित एक विज्ञापन जनहित में प्रकाशित किया। विज्ञापन का उद्देश्य वाकई में जनहित का है लेकिन जनहित से जुड़े मसलों पर इसी तरह से कानून हाथ में लिया जाने लगा तो फिर नक्सली और आम लोगों में फर्क क्या रह जाएगा। क्या नक्सली भी इसी तरह की भाषा का इस्तेमाल नहीं करते।
हालांकि इस अखबार के संपादक सुनील कुमार एक सुलझे हुए व्यक्ति है लेकिन उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी लेकिन जब सरकार पूरी तरह निकम्मी और भ्रष्ट हो तो अच्छे-अच्छे आदमी का दिमाग खराब हो जाता है शायद तभी कानून हाथ में लेने की बात की जाती है। मुझे रोज सदर बाजार से गुजरना पड़ता है और सेठों की गाड़ियों की वजह से यातायात में घंटों फंसना होता है इस बारे में खूब लिखा भी और कभी-कभी कानून हाथ में लेकर इन खड़ी गाड़ियों में तोड़फोड़ कर या करवा देने का विचार भी आया लेकिन मेरे विचार को दूसरे पर थोपने और कानून हाथ में लेने से बचता रहा हूं। लेकिन सुनील कुमार शायद सरकारी करतूतों में अपनी भावनाओं को रोक नहीं पाए और लोकतंत्र से विश्वास उठ गया।
और अंत में...
इन दिनों पत्रकारों को प्रशासन को चुस्त करने नए-नए उपाय सुझ रहे हैं एक पत्रकार ने प्रेसक्लब में भ्रष्ट तंत्र की आलोचना करते एक मंत्री के खिलाफ खबर बनाने का दावा किया लेकिन दफ्तर पहुंचते ही उनके हाथ कांपने लगे जब पता चला कि नगर भैया के पास उनका दावा पहले ही पहुंच गया और संपादक ने उसे उसकी हरकत के लिए चेतावनी तक दे डाली।

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