अटल सरकार ने जब दल बदल कानून लाया होगा तब उन्हें भी शायद इस बात की कल्पना नहीं रही होगी कि यह लोकतंत्र का हत्यारा साबित होगा? यदि दलबदल कानून का फायदा राजनैतिक दलों को मिला है तो इस कानून से जनता को सर्वाधिक नुकसान उठाना पड़ा है।
अटल सरकार ने यह कानून यह सोचकर लाया था कि इससे पार्टियाें में टूट नहीं होगी और पैसा खाकर निष्ठा बदलने की परम्परा भी खत्म हो जाएगी। दरअसल तोड़फोड़ की राजनीति का शिकार भी भाजपा सर्वाधिक हुई है और अन्य दल भी अपने विधायक-सांसदों से आशंकित रहते थे कि कब वे बिक न जाए। इस डर की वजह से लाया गया कानून आम लोगों के लिए कितना विभत्स हो गया है यह अब देखने को मिल रहा है।
रायों में तो मुख्यमंत्री खुलेआम दादागिरी कर रहे हैं उन्हें सिर्फ प्रदेश प्रभारी और हाईकमान को पटा कर रखना है बाकी जैसी मर्जी वैसा करो? इस कानून के चलते विधायकों-सांसदों की जमकर अनदेखी की जा रही है। विधायक जानते हैं कि मुख्यमंत्री की शिकायत करना ठीक नहीं है इसलिए वे खामोश रह जाते हैं और यादा शिकायत की तो पार्टी से हकाले भी जा सकते हैं। इतना ही नहीं अनाप-शनाप नियम बनाने में पार्टी व्हीप के नाम पर जिस तरह से जबरिया वोटिंग कराने का प्रावधान है वह आत्मा को मारने वाली है। गलत बातों का भी समर्थन करने की मजबूरी ने विधायक-सांसदों को इस कदर पार्टी का गुलाम बना दिया है कि पार्टी हित के आगे देश या प्रदेश का हित किनारे किया जाने लगा है।
यही नहीं मुख्यमंत्री चेहरा देखकर काम करने लगे हैं छत्तीसगढ़ में ही कई भाजपा विधायक है जो सरकार की करतूतों से नाराज हैं और वे इसलिए नहीं बोलते हैं कि उनके खिलाफ पार्टी कार्रवाई कर देगी? एक विधायक ने तो नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि किस तरह से अधिकारियों की मनमानी के चलते उनके क्षेत्र का विकास कार्य ठप्प पड़ गया है और उन्हें खामोश रहने धमकी दी जाती है। इस विधायक ने तो इस कानून के बनने के बाद पार्टी विधायकों व सांसदों की हालत दयनीय होने का दावा किया। यह स्थिति अमूमन सभी दलों में है। पार्टी के बाहर जाकर जनहित के मुद्दे उठाने पर विधायकी जाने वाले इस कानून को बदलने की मांग भी दबे जुबान में होने लगी है।
एक विधायक ने कहा कि इस कानून के कारण ही भ्रष्टाचार बढ़ी है। वेतन और जीवनभर मिलने वाले पेंशन के कारण पार्टियों से जुड़े रहने की मजबूरी ने आम लोगों के हितों पर कुठाराघात किया है। एक विधायक ने कहा कि ठीक है पार्टी का प्रभाव जीत का मार्ग प्रशस्त करती है लेकिन अब वह जमाना नहीं है कि पार्टी टिकिट दे और जीत जाए। स्वयं की छवि भी महत्वपूर्ण होती है ऐसे में पार्टी की दादागिरी तानाशाही तक जा पहुंची है। वास्तव में इस कानून ने जिस तरह से विधायकों और सांसदों को पार्टी का गुलाम बना दिया है उससे आने वाले दिनों में जनहित की बजाए राजनैतिक फायदे की बात ही अधिक होगी जो देश और समाज दोनों के लिए खतरा है।
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