अभी छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव में पूरे डेढ़ साल है लेकिन राजनैतिक दलों की छटपटाहट साफ दिखनेे लगा है। कांगे्रस जहां सत्ता छिनने में लगी है तो भाजपा में सत्ता बचाने की छटपटाहट साफ दिख रहा है। पिछले 7-8 सालों में छत्तीसगढ़ में बैठी भाजपा के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि सरकार का प्रदर्शन को लेकर भाजपाई खुद परेशान है। कोयले की कालिख में पूति सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप आम लोगों के जुबान पर है ऐसे में आदिवासियों की पिटाई और हरिजन अत्याचार के साथ किसानों से वादा खिलाफी ने रमन सरकार के माथे पर चिंता की लकीरें बढ़ा दी है।
भाजपा के सामने एक दिक्कत गुटबाजी और असंतोष भी है। प्रदेश के दिग्गज भाजपाई चाहे रमेश बैस हो या जूदेव या फिर नंदकुमार साय हो या फिर करुणा शुक्ला सरकार के काम काज के तरीकों से बेहद नाराज है। यह अलग बात है कि भाजपा में अनुशासन का डंडा भी जबरदस्त है इसलिए विवाद मूर्त रूप नहीं ले पा रहा है। लेकिन भीतर ही भीतर सुलग रहे असंतोष ने कहीं विधानसभा में अपना असर दिखाया तो सत्ता बचा पाना मुश्किल हो जायेगा।
भ्रष्टाचार के अलावा कानून व्यवस्था को लेकर भी रमन सरकार कटघरे में है। खासकर कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन अपहरण कांड को लेकर तो डॉ.रमन सिंह पर नक्सलियों से समझौते के जो आरोप लगे है वह रमन सिंह की छवि को लेकर भाजपा में चिंता स्वाभाविक है।
दूसरी तरफ तमाम गुटबाजी के बाद भी नंदकुमार पटेल के अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस में नये सिरे से उत्साह तो जगा है लेकिन बड़े नेताओं की गुटबाजी किस हद तक जायेगी यह कहना कठिन है। हालांकि दस साल के वनवास से चिंतित कांग्रेसी चुनाव में गुटबाजी भुलाकर सत्ता वापसी का दावा तो कर रहे है लेकिन यह कितना कारगर होगा कहना कठिन है।
दोनों ही पार्टी इस बात को जानते है कि छत्तीसगढ़ में सरकार पर वहीं बैठेगा जो बस्तर-सरगुजा फतह करेगी। ऐसे में बस्तर को लेकर दोनों ही पार्टियों की छटपटाहट स्वाभाविक है। बस्तर कांग्रेस में जहां गुटबाजी के चलते कांग्रेस की हालत खराब रही है तो आदिवासियों की पिटाई और नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव से भाजपा भी बुरी तरह घिर गई है ऐसे में मैदानी इलाकों में भाजपा अधिकारिक जोर देना तो चाहती है लेकिन किसानों की नाराजगी और हरिजनों की नाराजगी को दूर करना ही होगा।
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