जन लोकपाल बिल को लेकर अन्ना हजारे के अनशन और फिर इस मामले की जीत ने भले ही एक नए बहस को जनम दिया हो लेकिन वास्तव में इस तरीके ने भ्रष्ट नौकरशाह और भ्रष्ट अफसरों की नींद उड़ा दी है। भले ही कर्नाटक के पूर्व मुख्य मंत्री कुमार स्वामी से लेकर कपिल सिब्बल , सलमान खुर्शिद हो या तारीक अनवर इस तरीके की आलोचना कर रहे हो लेकिन एक बात तो तय है कि इस तरह का आंदोलन आज भी प्रासंगिग है और इमानदारी हो तो ऐसे आंदोलनों को सफलता भी मिलती है।
छत्तीसगढ़ के अधिकांश जिले नक्सली प्रभावित है और वे दो तीन दशको से अपनी मांगो को लेकर हिंसा का सहारा ले रहे हैं लेकिन हिंसा से कभी भी मांगे पूरी नहीं होती। यही वजह है कि नक्सलियों की मांगे महत्वपूर्ण होते हुए भी उनके प्रति जन-आक्रोश बढ़ता ही जा रहां है।
हिंसा कभी भी किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता यह बात अन्ना हजारे ने साबित कर दिया है और हमारा भी नक्सलियों से यही आग्रह है कि वे अब भी समझ जांए और गांधी वादी तरीके से लोगों की भलाई की सोचें। आखिर उनके आंदोलन से हर हाल में आम लोगों को ही भूगतना पड़ रहा है। यदि वे अपनी मांगे इमानदारी से रखे तो किसी भी सरकार में हिम्मत नहीं है कि वे आम लोगो के हिंतो की बात नकार दें।
जल-जंगल और जमीन को लेकर चल रहे नक्सली आंदोलन का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि उनकी हिंसा का सर्वाधिक शिकार वे आम लोग ही हो रहे हैं जिनके हितों की दुहाई दी जाती है।
आदिवासी या दूसरे लोग बेवजह मारे जा रहे हैं। अनाथ और अपाहिज होते बच्चों को देखने के बाद भी नक्सलियों का दिल नहीं पसीजता तो कहीं न कही उनकी अपनी सोच है जो आम लोगों के हित कम अपना हित अधिक देखता हो। बहुत संभव है वे विदेशी ताकतो के इशारे पर हिंसा का रास्ता अख्तियार किये हो। लेकिन सच यह है कि गाँधी के देश में हिंसा के लिए कतई जगह नहीं है और अपनी मांगे मनवाने का सबसे अच्छा तरीका गांधीवाद और चुनाव में हिस्सेदारी है।
अन्ना हजारे सहित आम लोगों ने जन लोकपाल की बिल की लड़ाई को दूसरी आजादी की लड़ाई से संबोधित किया था। यह भी सच है कि भ्रष्ट नेता और तानाशाही चलाने वाले अफसरों ने विकास को शहरों तक सीमित कर दिया है और गांवों में आज भी शिक्षा, सवास्थ या दूसरी बुनियादी का अभाव है लेकिन इसके लिए हमारे अपने जनप्रतिनिधि ही दोषी हैं जिन्हें नौकरशाहों पर लगाम कसने या क्षेत्र के विकास के लिए भेजा जाता है लेकिन वे अपने वेतन भत्तों और पेंशन के अलावा भी पैसों के लिए काम करता है।
नक्सली हिंसा अब बंद भी होना चाहिए। नक्सली आंदोलन से जुड़े लोगों को चाहिए कि वे जिन--े हितों की लड़ाई की बात करते हैं उनके आंदोलन से उनका क्या हाल है जरा देखें। सिपाही की नौकरी भी कोई रईस जादे नहीं करते शोषित माने जाने वाले समाज के एक हिस्से की इसमें भागीदारी होती है उन्हें मारने से उनका परिवार का क्या हाल होता है वे पता क्यों नहीं करते।
एक बात वे और समझ लेकिन गांधी वाद की ताकत को पूरे विश्व ने माना है। मिस्र मे तख्ता पलट इसका उदाहरन है। उन्हें कोई शिकायत हो तो उन्हें भी अपनी बात रखने की छूट है पर बंदूको किसी भी हाल में उचित नहीं कहा जा सकता।
मेरा आग्रह है कि अन्ना हजारे के नेतृत्त्व में देश की व्यवस्था सुधारने के लिए वे भी हिंसा का रास्ता छोड़ इस दूसरी लड़ाई में अपना जीवन होम कर दे अन्यथा नक्सली-हिंसा मुर्दाबाद के नारे लगते रहेंगे और वह आम आदमी मरता रहेगा जो अव्यवस्था से पहले ही मर चुका है।
छत्तीसगढ़ के अधिकांश जिले नक्सली प्रभावित है और वे दो तीन दशको से अपनी मांगो को लेकर हिंसा का सहारा ले रहे हैं लेकिन हिंसा से कभी भी मांगे पूरी नहीं होती। यही वजह है कि नक्सलियों की मांगे महत्वपूर्ण होते हुए भी उनके प्रति जन-आक्रोश बढ़ता ही जा रहां है।
हिंसा कभी भी किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता यह बात अन्ना हजारे ने साबित कर दिया है और हमारा भी नक्सलियों से यही आग्रह है कि वे अब भी समझ जांए और गांधी वादी तरीके से लोगों की भलाई की सोचें। आखिर उनके आंदोलन से हर हाल में आम लोगों को ही भूगतना पड़ रहा है। यदि वे अपनी मांगे इमानदारी से रखे तो किसी भी सरकार में हिम्मत नहीं है कि वे आम लोगो के हिंतो की बात नकार दें।
जल-जंगल और जमीन को लेकर चल रहे नक्सली आंदोलन का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि उनकी हिंसा का सर्वाधिक शिकार वे आम लोग ही हो रहे हैं जिनके हितों की दुहाई दी जाती है।
आदिवासी या दूसरे लोग बेवजह मारे जा रहे हैं। अनाथ और अपाहिज होते बच्चों को देखने के बाद भी नक्सलियों का दिल नहीं पसीजता तो कहीं न कही उनकी अपनी सोच है जो आम लोगों के हित कम अपना हित अधिक देखता हो। बहुत संभव है वे विदेशी ताकतो के इशारे पर हिंसा का रास्ता अख्तियार किये हो। लेकिन सच यह है कि गाँधी के देश में हिंसा के लिए कतई जगह नहीं है और अपनी मांगे मनवाने का सबसे अच्छा तरीका गांधीवाद और चुनाव में हिस्सेदारी है।
अन्ना हजारे सहित आम लोगों ने जन लोकपाल की बिल की लड़ाई को दूसरी आजादी की लड़ाई से संबोधित किया था। यह भी सच है कि भ्रष्ट नेता और तानाशाही चलाने वाले अफसरों ने विकास को शहरों तक सीमित कर दिया है और गांवों में आज भी शिक्षा, सवास्थ या दूसरी बुनियादी का अभाव है लेकिन इसके लिए हमारे अपने जनप्रतिनिधि ही दोषी हैं जिन्हें नौकरशाहों पर लगाम कसने या क्षेत्र के विकास के लिए भेजा जाता है लेकिन वे अपने वेतन भत्तों और पेंशन के अलावा भी पैसों के लिए काम करता है।
नक्सली हिंसा अब बंद भी होना चाहिए। नक्सली आंदोलन से जुड़े लोगों को चाहिए कि वे जिन--े हितों की लड़ाई की बात करते हैं उनके आंदोलन से उनका क्या हाल है जरा देखें। सिपाही की नौकरी भी कोई रईस जादे नहीं करते शोषित माने जाने वाले समाज के एक हिस्से की इसमें भागीदारी होती है उन्हें मारने से उनका परिवार का क्या हाल होता है वे पता क्यों नहीं करते।
एक बात वे और समझ लेकिन गांधी वाद की ताकत को पूरे विश्व ने माना है। मिस्र मे तख्ता पलट इसका उदाहरन है। उन्हें कोई शिकायत हो तो उन्हें भी अपनी बात रखने की छूट है पर बंदूको किसी भी हाल में उचित नहीं कहा जा सकता।
मेरा आग्रह है कि अन्ना हजारे के नेतृत्त्व में देश की व्यवस्था सुधारने के लिए वे भी हिंसा का रास्ता छोड़ इस दूसरी लड़ाई में अपना जीवन होम कर दे अन्यथा नक्सली-हिंसा मुर्दाबाद के नारे लगते रहेंगे और वह आम आदमी मरता रहेगा जो अव्यवस्था से पहले ही मर चुका है।
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