रायपुर। पुलिस मुख्यालय में पदोन्नति से लेकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पोस्टिंग नहीं कराने को लेकर जबरदस्त लेनदेन का खेल चल रहा है। अधिकारियों की मनमानी के चलते सिपाही से लेकर निरीक्षक तक प्रताडि़त हैं और इसकी कोई सुनवाई भी नहीं होती। ऐसे में प्रताडऩा के शिकार पुलिस कर्मियों से बेहतर उम्मीद करना बेमानी है।
आईपीएस राहुल शर्मा ने आत्महत्या के बाद वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा प्रताडि़त किये जाने की खबर को लेकर बिहिनिया संझा ने जब पुलिस मुख्यालय में दस्तक दी तो वहां का हाल देखकर हम हैरान रह गये। गुटबाजी में बुरी तरह उलझी पुलिस अधिकारियों के पास अपनी कुर्सी बचाने के अलावा कोई काम ही नहीं रह गया है। एक दूसरे को निपटाने में लगे अधिकारियों की मनमानी से सिपाही तक अचरज में पड़ गए हैं और वे ऐसे किस्से हमें बताये जिसका प्रमाण जुटाना संभव नहीं होने की वजह से छाप पाना मुश्किल है। लेकिन यहां नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पोस्टिंग नहीं करवाने जमकर लेनदेन का खेल चलता है। सर्वाधिक दुखद स्थिति तो वरिष्ठता सूची बनाने की है जिसमें इतनी घपलेबाजी की जाती है कि इसके शिकार पुलिस कर्मियों की मानसिक स्थिति भी बिगड़ सकती है। ऐसा ही एक मामला सहायक उपनिरीक्षक से निरीक्षक बने रमेश कुमार निषाद का है। जानकारी के मुताबिक पुलिस मुख्यालय ने रमेश कुमार निषाद को एसटी कोटे से पदोन्नति देकर उपनिरीक्षक बना दिया। लेकिन नरेश कुमार ने इस पदोन्नति को यह कहकर लेने से मना कर दिया कि वह सामान्य श्रेणी का है इसलिए इसे सुधारा जाए। विभाग ने उसका नाम हटा तो दिया लेकिन किसी और का नाम नहीं जोड़े जाने से आरक्षण नियमों की न केवल अनदेखी हुई बल्कि पदोन्नति की लाईन में खड़े एसटी वर्ग के किसी एक सहायक उपनिरीक्षक का हक मारा गया।
बताया जाता है कि इस पदोन्नति सूची में कई लोगों के साथ ऐसा ही हुआ जिसकी वजह से वे प्रताडि़त हुए। अफसरों के सामने वे ज्यादा इसलिए भी नहीं बोल पाये कि उनका सीआर खराब न हो जाए।
अब रमेश को उसकी ईमानदारी की सजा मिलने लगी। जब उसने अपने को सामान्य बताकर एसटी कोटे के लिस्ट से नाम हटवाया तो नियमानुसार उसका प्रमोशन 2008 में होना था लेकिन 2008 की सूची जब निकली तो उसका नाम इसमें यह कहकर शामिल नहीं किया गया कि उसे 2006 में एसटी कोटे से पदोन्नति दे दी गई है जबकि रमेश ने 2006 में पदोन्नति नहीं ली थी।
बताया जाता है कि रमेश सहित तीन चार और लोगों के साथ यह घटना हुई थी और रमेश ने जब अपनी स्थिति अधिकारियों के सामने रखी तो उसकी बात कोई सुनने को तैयार नहीं था। और साल भर चक्कर लगाने के बाद उसे 2009 में पदोन्नति दी गई।
ईमानदारी की इस सजा के चलते उसे 2008 से 2009 यानी पूरे एक साल मानसिक रूप से न केवल प्रताडि़त होना पड़ा बल्कि अपने साथियों से यह भी सूनना पड़ा की कि ले ईमानदारी की सजा भुगत।
अब सवाल यह है कि इस मानसिक प्रताडऩा की बात तो दूर पदोन्नति सूची में गड़बड़ी करने वालों पर कभी कार्रवाई नहीं हुई। वह लड़ाई लड़कर अपना हक पा लिया लेकिन कहा जाता है कि ऐसे कई लोग हैं जो विभागीय प्रताडऩा का शिकार है और गनीमत है कि इनमें से किसी ने राहुल शर्मा जैसा कदम नहीं उठाया है वरना जब राहुल शर्मा के सुसाईडल नोट के बाद कार्रवाई नहीं हो रही है तो इनका क्या होता?
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