शनिवार, 11 अप्रैल 2015

नियत नहीं मजबूरी...


रमन सरकार ने निगम मंडल व आयोग के अध्यक्षों व सचिवों को सरकारी मकान देने पर रोक लगा दी है। निश्चित ही यह सराहनीय कदम माना जा सकता है लेकिन यदि इसमें यह भी जोड़ दिया जाता कि जिन मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के पास राजधानी में स्वयं का मकान है उन्हें भी बंगले या मकान नहीं दिये जायेंगे तो यह सरकारी धन के दुरूपयोग रोकने में कारगर कदम होता। मगर अफसोस यह है कि यह सरकार की नियत नहीं बल्कि आर्थिक संकट से जूझने की मजबूरी है।
छत्तीसगढ़ जैसे नये राज्य में विकास की अपार संभावना है लेकिन सरकारी धन के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के चलते विकास की रफ्तार धीमी पड़ गई है। हम यहां प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी के मंत्रिमंडल के सदस्यों को एक बार फिर याद करते हैं जिन्होंने मंत्री होने के बाद भी सरकारी बंगला लेने से मना कर दिया था। इसमें सत्यनारायण शर्मा, तरूण चटर्जी, धनेंद्र साहू, मो. अकबर, विधान मिश्रा जैसे मंत्री थे जिन्होंने सरकारी बंगला नहीं लिया था। लेकिन भाजपा की सरकार बनते ही राजधानी में जिन लोगों के बड़े बड़े मकान थे उन लोगों ने न केवल बंगले लिए बल्कि हर साल इस पर करोड़ों रूपए भी खर्च कर रहे हैं। मंत्रियों के बंगलों के रखरखाव में ही सरकार को हर साल करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं।
रमन सरकार में भ्रष्टाचार और सरकारी धन के दुरुपयोग को लेकर विपक्षी दलों व मीडिया  ने कई दफे आवाज उठाई लेकिन बहुमत के दम पर इस तरह की आवाज दबा दी गई।
पिछले दो कार्यकाल में निगम मंडल के अध्यक्षों व सचिवों ने सरकारी धन का जिस बेदर्दी से दुरुपयोग किया वह हैरान कर देने वाला है। आबंटित बंगले तक खरीद लिये गए और सरकार के मुख्यमंत्री इस ओर आंख मूंदे रहा।
हालांकि रमन सरकार के इस निर्णय से सरकारी धन का दुरुपयोग तो रुकेगा लेकिन यह सब सांप गुजरने के बाद लाठी पिटने की स्थिति है।
आर्थिक संकट से जूझ रही सरकार का यह निर्णय नियत की बजाय मजबूरी भरा कदम है यदि नियम है तो मंत्रियों व विधायकों व सांसदों के संबंध में कदम उठाये जाने चाहिए।
इधर इस निर्णय को लेकर भाजपा में असंतोष है तो आर्थिक संकट की वजह से लिए इस निर्णय पर यही कहा जा रहा है कि  सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया ?

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