रविवार, 18 मई 2025

जिसे मानद उपाधि देने का विरोध उसे ज्ञान पीठ…

 जिसे मानद उपाधि देने का विरोध उसे ज्ञान पीठ… 


वैसे तो यह किसी से छिपा नहीं है कि इस दौर में सत्ता का खेल क्या है, अपने लोगों को नवाज़ने के इस दौर में जब रामभद्राचार्य को ज्ञानपीठ देने की घोषणा हुई, तो इसे लेकर कई सवाल खड़े हो गये, अभी ज़्यादा वक्त नहीं बिता है जब अप्रैल २०२५ में उन्हें सागर विश्वविद्यालय ने डी लिट की उपाधि देने की घोषणा को भारी विरोध में निलंबित करना पड़ा। इसकी शिकायत राष्ट्रपति तक हुई , और अब ज्ञानपीठ देने पर सवाल खड़े हो गये है 

क्या है डी लिट.. का मामला 


डॉ. हरिसिंह गौर यूनिवर्सिटी अपने 33वें दीक्षांत समारोह में जगद्गुरु रामभद्राचार्य को डी. लिट की मानद उपाधि देने जा रही है. इसके लिए विश्वविद्यालय को राष्ट्रपति से भी मंजूरी मिल गई है. ये बात सामने आते ही फोरम ऑफ प्रोग्रेसिव एकेडेमिया के बैनर तले देश भर के शिक्षाविद, कानूनविद, पत्रकार, समाजसेवी, पूर्व छात्र और शोध छात्र विरोध में उतर आए हैं. वो जिला और विश्वविद्यालय प्रशासन के समक्ष विरोध जता रहे हैं. उन्होंने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर इस फैसले पर विरोध प्रकट किया है. उनका कहना है कि ये फैसला लोकतांत्रिक, सामाजिक न्याय और संवैधानिक नैतिकता के मूल्यों को कमजोर करता है. साथ ही वंचित समुदाय के लिए पीड़ादायक संदेश भी है.

रामभद्राचार्य पर लगा रहे हैं गंभीर आरोप

रामभद्राचार्य को दी जा रही डी. लिट की मानद उपाधि का विरोध करने वालों का तर्क है कि "रामभद्राचार्य विद्वान होने के साथ-साथ विवादास्पद भी हैं. उन्होंने कई बार अपने भाषण और वक्तव्यों में डाॅ. भीमराव अंबेडकर, बौद्ध धर्म और दलित समुदाय के विरुद्ध आपत्तिजनक और अपमानजनक टिप्पणियां की है. उनके बयान समाज में विभाजन पैदा करने वाले, जातिवादी और अपमानजनक होते हैं. ऐसे बयान हमारे संविधान के बंधुत्व, समानता और गरिमा के प्रतिकूल हैं."

इसके अलावा उनका कहना है कि"इस यूनिवर्सिटी के संस्थापक डाॅ. हरीसिंह गौर प्रगतिशील सुधारक, विधि विशेषज्ञ और बौद्ध चेतना से युक्त व्यक्ति थे. जिन्होंने दलितों, महिलाओं और पिछड़ों के लिए संघर्ष किया और वैज्ञानिक सोच, लैंगिक समानता और सामाजिक उत्थान को अपने जीवन का आधार बनाया. ऐसे में यूनिवर्सिटी द्वारा ऐसे व्यक्ति को सम्मान देना, उनके मूल्यों के विपरीत, विडंबना पूर्ण और यूनिवर्सिटी की मूल आत्मा का अपमान है."

भारत में साहित्य का सर्वोच्च नागरिक सम्मान—

ज्ञानपीठ पुरस्कार—सिर्फ भाषा और शैली का ही नहीं, बल्कि लेखक के सामाजिक दृष्टिकोण, नैतिकता और मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का भी सम्मान माना जाता है। इसी सम्मान का 58वां संस्करण 2024 में संस्कृत विद्वान जगद्गुरु रामभद्राचार्य को दिया गया। लेकिन इस निर्णय ने साहित्यिक, सामाजिक और बौद्धिक वर्गों में गहरी चिंता और आलोचना उत्पन्न की है।


रामभद्राचार्य को ज्ञानपीठ क्यों मिला?

सीतामढ़ी के प्रो राजकुमार गुप्ता लिखते हैं जगद्गुरु रामभद्राचार्य को यह पुरस्कार उनके संस्कृत साहित्य में योगदान के लिए दिया गया। वे एक अंध विद्वान हैं और उन्होंने विभिन्न ग्रंथों की रचना व व्याख्या की है, जिनमें धार्मिक-दार्शनिक और काव्यात्मक रचनाएँ प्रमुख हैं। उनके समर्थक उन्हें तुलसीदास की परंपरा का आधुनिक व्याख्याता मानते हैं।

लेकिन सवाल ये उठता है-क्या सिर्फ पांडित्य और भाषिक लेखन ही पुरस्कार के लिए पर्याप्त हैं? क्या लेखक की सामाजिक संवेदनशीलता, जातीय समरसता, और संविधान के मूल्यों के प्रति निष्ठा का कोई मूल्य नहीं रह गया?

विवादित और घृणास्पद बयान:

1. जातिसूचक टिप्पणी: “जो राम को नहीं भजता वो चमार है”-

जनवरी 2024 में रामभद्राचार्य का एक वीडियो सामने आया जिसमें उन्होंने कहा:“जो राम को नहीं भजता, वो चमार है।”

यह कथन न सिर्फ घोर जातिवादी है, बल्कि दलित समुदाय का अपमान भी है। देशभर में इस बयान की निंदा हुई और उनकी गिरफ्तारी की माँग उठी। (TV9Hindi)

बाद में उन्होंने सफाई दी कि उनका इरादा किसी जाति को अपमानित करने का नहीं था, लेकिन सार्वजनिक मानसिकता और इतिहास को देखते हुए यह माफ़ी अपर्याप्त मानी गई।

2. डॉ. भीमराव अंबेडकर पर अमर्यादित टिप्पणी-

रामभद्राचार्य ने अपने एक भाषण में कहा: "अगर अंबेडकर को संस्कृत आती, तो वो मनुस्मृति को नहीं जलाते।"

यह कथन न सिर्फ तथ्यात्मक रूप से ग़लत है (क्योंकि अंबेडकर को संस्कृत का ज्ञान था), बल्कि यह मनुस्मृति जैसे जातिवादी ग्रंथ के समर्थन में दिया गया बयान है, जिसने सदियों से शूद्रों, स्त्रियों और अछूतों के साथ भेदभाव किया। (The Sootr)

3. वर्ण–उपवर्ण के बीच जातिगत भेद-

रामभद्राचार्य ने एक मंच से कहा था कि:"चौबे, पाठक, दीक्षित, उपाध्याय नीच कुल के ब्राह्मण हैं।"

इस तरह का बयान ब्राह्मणों के भीतर भी जातिगत ऊँच-नीच को बढ़ावा देता है, जो मनुवादी सोच का स्पष्ट प्रमाण है।

4. पाकिस्तान के खिलाफ उन्मादी भाषण-


नवंबर 2024 में जयपुर में श्रीराम कथा के दौरान उन्होंने कहा:

 “अब वह दिन दूर नहीं जब विश्व के नक्शे से पाकिस्तान का नामोनिशान मिट जाएगा।”

उन्होंने यह भी जोड़ा कि पाकिस्तान की ज़मीन वापस लेनी है, और ये हनुमान जी की कृपा से संभव होगा। (Patrika)

यह बयान धार्मिक और राजनीतिक कट्टरता को बढ़ावा देने वाला है, जो अहिंसा और विवेक आधारित संवाद की भारतीय परंपरा के विरुद्ध है।

5. आरक्षण पर अपमानजनक टिप्पणी-

उन्होंने आरक्षण पर बोलते हुए कहा: “सवर्ण बच्चा 100% लाकर जूता सिलाई करे, और दलित 4% लाकर कलेक्टर बने – ये कैसा न्याय है?”

यह बयान न सिर्फ दलितों की योग्यता का अपमान करता है, बल्कि सामाजिक न्याय की संवैधानिक अवधारणा पर भी हमला है। (Navbharat Times)


कई संगठनों ने उनकी गिरफ्तारी और पद्म विभूषण/ज्ञानपीठ जैसे सम्मानों को वापस लेने की माँग की है। सोशल मीडिया पर #RevokePadmaVibhushan और #ArrestRambhadracharya जैसे हैशटैग ट्रेंड कर चुके हैं।

सवाल जो देश को सोचने चाहिए-

क्या किसी लेखक या संत को सिर्फ शास्त्र ज्ञान और भाषा के बल पर सम्मानित किया जाना चाहिए, जब वह सार्वजनिक रूप से संविधान, दलित समाज, और सामाजिक समरसता के खिलाफ बोलता हो?

क्या ज्ञानपीठ जैसी संस्था का यह नैतिक दायित्व नहीं बनता कि वह सिर्फ साहित्यिक गुणवत्ता नहीं, बल्कि लेखक की सामाजिक प्रतिबद्धता को भी तौले?


निष्कर्ष- रामभद्राचार्य भले ही संस्कृत के ज्ञाता हों, लेकिन उनके जातिवादी, दलित-विरोधी और उन्मादी अंधविश्वासी वक्तव्य उन्हें 'ज्ञान' और 'विवेक' के प्रतीक के रूप में अयोग्य बनाते हैं।

भारत में आज आवश्यकता है ऐसे साहित्य और विचारों की जो समावेशिता, संविधानवाद, और सामाजिक न्याय को बढ़ावा दें, ऐसे विचारकों की जो सदियों पुरानी असमानताओं को नए रूप में प्रतिष्ठित करते हो…

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