बंग्लादेश से भारत कितना अलग ?
तुही के, हमी के-रजाकार रजाकार !
सवाल यह नहीं है कि बंग्लादेश के प्रधानमंत्री शेख हसीना का अब क्या होगा?
सवाल तो यह है कि लोकप्रियता की शिखर में बैठी शेख हसीना कैसे चूक गई और क्या इसका भारत के राज काज में कोई समानता है । हालांकि यह सवाल तो तब भी उठे थे जब श्रीलंका में भी आन्दोलन हुआ था।
लेकिन बांग्लादेश में यह स्थिति क्यों बनी इस सवाल का यदि एक लाईन में जवाब ढूँढा जाए तो सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि लोकप्रियता की शिखर में पहुंच कर शेख हसीना ने विरोध के स्वर को कुचलने के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल किया, जिस तरह से विरोधियों को विदेशी एजेंट, देशद्रोही ओर गद्दार खुले आम कहने लगी उसका परिणाम सबके सामने है।
लोकप्रियता के शिखर में पहुंचने वाली शेख़ हसीना के पिता बंगबंधु मुजीबुर्ररहमान की बेटी है जिन्होंने पाकिस्तान से बंग्लादेश को आजाद कराया था और लोकतंत्र की हिमायती व नरम तेवर की मानी जाती रही है लेकिन लोकप्रियता की शिखर में पहुंचने के बाद उन्होंने विरोधियों को जिस तरह से ठेंगे पर रखा, उन्हें विदेशी एजेंट बताकर जेल में डाला,यह परिणाम उसी का है कहा जाय तो गलत नहीं होगा।
हर युद्ध के कई कारण होते हैं, वैसे ही तख्ता पलट के भी कई कारण होते है लेकिन तत्कालीक कारण ही ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। और यह कारण था बेरोजगारी के साथ आरक्षण पर सत्ता का निर्णय और विरोधियों पर बदजुबानी।
कोर्ट के फैसले के बाद जब छात्र भड़के तो प्रधानमंत्री शोख हसीना ने कह दिया कि यदि स्वतंत्रता सेनानियों को आरक्षण नहीं मिलेगा तो क्या रजाकारों (गद्दारों) को आरक्षण मिलेगा।
रजाकार (गद्दार) शब्द इतना तूल पकड़ा कि ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने आंदोलन करते हुए नारा ही बुलंद कर दिया कि 'तुही के, हमी के, रजाकार रजाकार यानी तुम कौन- हम कौन गद्दार-गद्दार।
इस नारे ने इतना तूल पकड़ा कि शेख हसीना को बांग्लादेश छोड़कर भागना पड़ा।
लोकप्रियता के मद में डूबे सत्ता ने क्या विरोधियों के खिलाफ भारत में भी विषवमन नहीं कर रही है, राहुल गांधी को चीनी एजेट तो किसानों को पाकिस्तान परस्त, एनआरसी-सीएए, से लेकर धारा 370 को हटाने का मामला हो या कोरेगांव ?
किस तरह से इस दौर में आन्दोलन को कुचलने के निए गोली मारों सालों को जैसे नारे नहीं उछाले गये, बढ़ती बेरोजगारी के बीच पेपर लीक का मामला हो या फिर चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर उठते सवाल? क्या लोगों में ग़ुस्सा नहीं बढ़ रहा?
हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए एक वर्ग विशेष को निशाने में लेने के ख़िलाफ़ उठते आवाज़ में विरोधियों को हिन्दू विरोधी करार देना।
शेख़ हसीना ने लोकतंत्र और संविधान को कुचल डाला था।
जिसने भी विरोध किया उसे जेल में डाल दिया।
विपक्ष के नेताओं को देशद्रोही और ग़द्दार कहा।
विदेशी एजेंट कहा।
छह महीने पहले 300 में 280 से ज़्यादा सीटें जीत गईं। क्योंकि विपक्ष ने चुनाव का बहिष्कार कर दिया था।
शेख़ हसीना के इशारे पर नाचते थे टीवी चैनल।
अदालतें उनके हिसाब से फ़ैसले लिखती थीं।
दो बार की प्रधानमंत्री ख़ालिदा जिया को उन्होंने जेल में डाल दिया था।
उन्हें इलाज तक के लिए नहीं जाने दिया।
शेख़ हसीना को भ्रम था कि उनके "मन की बात" पूरे बांग्लादेश के मन की बात है।
फिर जनता का ये भ्रम टूट गया।
शेख़ हसीना 5 बार प्रधानमंत्री रहीं।
लेकिन अब बांग्लादेश के इतिहास पर धब्बा हैं।
जब आप जनता के प्यार को तानाशाही का लाइसेंस समझ लेते हैं तो नागरिक आपको नाज़ से नासूर में बदलते देर नहीं लगाता।
लोग नीतियाँ बनाने के लिए वोट देते हैं विपक्षमुक्त करने के लिए नहीं।
शेख़ हसीना ने डेमोक्रेसी के सारे सिस्टम तहस-नहस कर डाले थे।
नहीं जानती थीं कि विपक्ष को लेकर फैलाए गए झूठ, चुनाव आयोग के फ़रेब, अदालतों की बेहयाई से ऊबी ह जनता के सब्र का बांध टूटेगा तो चोरों की तरह भागना पड़ जाएगा।
विश्वगुरु भारत ने एक और पड़ोसी देश में भद पिटवा ली है।
फिर साबित हुआ है कि एस जयशंकर को विदेश नीति की बारीक समझ नहीं है।
वो बहुत अच्छे अफ़सर रहे होंगे, लेकिन उनके पास ऐसी सूक्ष्म नज़र नहीं जो नरसिम्हा राव, गुजराल या प्रणब मुखर्जी जैसे विदेश मंत्रियों पास थी॥
तब सवाल यही है कि क्या बांग्लादेश की घटना से सत्ता को सबक नहीं लेना चाहिए?
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