धोखा…
पाकिस्तान कभी भी भरोसे के लायक़ नहीं है और उसने हमेशा ही पीठ पर छुरा मारा है
तब भारत को क्या अब अंतिम उपचार नहीं करना चाहिए
ट्रंप ने जैसे ही सीजफ़ायर की घोषणा की लोग इंदिरा को याद करने लगे
पूरा सोशल मीडिया इंदिरा की तारीफ़ से भर गया,
ऐसे में कुछ सवाल जो सोशल मीडिया में सुलगने लगे
उन चार आतंकवादियों का अब तक ना पकड़ा जाना,
उसके बाद पाकिस्तानी सेना द्वारा आम नागरिकों की हत्या,
सैनिकों का शहीद होना,
पाकिस्तान को लोन मिलना,
इस सबके दौरान मीडिया का बेशर्मी से अनियंत्रित होकर झूठ फैलाना,
अमेरिका का खुले आम कहना कि हमने सीज़फायर करवाया, जबकि हमारा स्टेंड हमेशा से रहा है कि हम तीसरे पक्ष की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करेंगे,
कूटनीतिक रूप से असफलता, जबकि कहा जाता है कि हमारा डंका विदेशों में बज रहा है,
पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी पी मलिक का बेहद निराशाजनक बयान कि हमें इस सबसे क्या मिला,
इन सब बातों के बाद भी आप सरकार का समर्थन कर रहे हैं तो मान लीजिये कि आपकी भक्ति देश से बढ़कर किसी पार्टी के प्रति है, और ये शर्म की बात है.
मनी तिवारी लिखते है… आप लोग अपने अपने तर्क और अंदाजे लगाते रहिए पर इस युद्ध और युद्धविराम, दोनों के पीछे पूरा खेला IMF का ही है।
आईएमएफ यानी "इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड" हिंदी में कहें तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष।
एक तरीके से बीसी या फिर कमेटी वाले खेल की तरह यहां भी करीब 190 देश अपना अंशदान करते है ताकि संकट में जरूरत पड़ने पर यहां से लोन लिया जा सके।
अब पाकिस्तान को लोन चाहिए था तो उसे अपने देश पर संकट तो दिखाना पड़ेगा, मसलन भारत ने वो मंसूबा पूरा कर दिया। फिर अमेरिका के वॉशिंगटन डीसी स्थित आईएमएफ मुख्यालय से पाकिस्तान को वो फंड भी जारी कर दिया गया।
190 देशों के इकट्ठा किए अरबों डॉलर किसी को संकट के नाम पर बांट देना कोई आसान काम नहीं है। बकायदे तनाव और युद्ध जैसी स्थितियां निर्मित करनी पड़ती है।
बाकी दलाली क्या होता है आप सब को पता हइए है। किसी सरकारी बैंक से लोन अप्रूव तो आपने भी करवाया ही होगा।
रजनीश जे जैन का लिखना है… सीज़फायर ! इस एक शब्द ने बहुत कुछ बदल दिया है।
आज दो बाते सिद्ध हुई। पहला , यह तय हो गया कि दुनिया का चौधरी कौन है। विश्व गुरु का गुब्बारा फुट गया। दूसरा , भारत की कूटनीति पर प्रश्न चिन्ह लग गया। सन इकहत्तर में जो कमाया था , आज गँवा दिया। भारत पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित नहीं करवा पाया , न ही आईएमएफ को खैरात देने से रोक पाया , न ही पहलगाम पीड़ितों को न्याय दिला पाया !
अब सवाल तो उठेंगे ही ! पीछा भी करेंगे। मिटटी में मिला देने वाली हुंकार का क्या होगा ? यह भी पूछा जाएगा कि क्या एक रिफाइनरी और एक पोर्ट आई बी की ख़ुफ़िया रिपोर्ट में संभावित टारगेट होने की पुष्टि के बाद सीज फायर की प्रस्तावना लिखी गई ?
देश तो सवाल करेगा ही , और करना भी चाहिए कि ऐसी कौन सी नस दबा दी मित्र डोलांड ने जिसने भारत के विजय रथ को रोक दिया है।
और भी लोगो की प्रतिक्रिया में इंदिरा ऐसे याद आई..
कागो प्रसादो महलो अपि न गरुणायते....
अर्थात महल के सबसे उंचे शिखर पर बैठने से कौवा कभी गरुण नहीं हो जाता।
इसी तरह पीएम की कुर्सी पर बैठ जाने से हर कोई इंदिरा नहीं बन जाता, वह इंदिरा गांधी ही थी जिसने अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन को अपने जूती के नोक पर रखा, पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए एवं 1983 में दुनिया के 108 गुट निरपेक्ष राष्ट्रों का नेतृत्व संभाला।
सर्दियों का नवंबर 1971...
इंदिरा गांधी अमेरिका के दौरे पर थीं। व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति निक्सन से मुलाकात हुई। बातचीत शुरू होते ही निक्सन ने घमंड में डूबकर चेतावनी दे डाली:
"अगर भारत ने पाकिस्तान के मामले में नाक घुसाई, तो अमेरिका चुप नहीं बैठेगा!"
इंदिरा गांधी ने बिना किसी उत्तेजना के, बेहद गरिमामयी अंदाज़ में जवाब दिया:
"भारत अमेरिका को मित्र मानता है, मालिक नहीं। हम अपनी किस्मत खुद लिखते हैं।"
और इतना कहकर वे बैठक छोड़कर उठ गईं।
बाद में इस पूरी मुलाकात का ज़िक्र अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने अपनी आत्मकथा "White House Years" में किया।
उस दिन बैठक के बाद मीडिया को साझा संबोधन होना था — पर इंदिरा गांधी बाहर निकलते ही कार्यक्रम रद्द करके सीधे अपनी कार की ओर बढ़ गईं।
कार का दरवाज़ा बंद करते वक्त किसिंजर ने कहा:
"मैडम, आपको नहीं लगता कि राष्ट्रपति के प्रति थोड़ा और धैर्य दिखाना चाहिए था?"
इंदिरा गांधी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया:
"धन्यवाद मिस्टर सेक्रेटरी, भारत भले ही विकासशील देश हो, लेकिन हमारी रीढ़ की हड्डी मजबूत है। हमारे पास अत्याचार झेलने की आदत नहीं, बल्कि उसका जवाब देने का साहस है। वो दिन लद चुके जब कोई ताकत हज़ारों मील दूर बैठकर हम पर राज कर सके।"
इसे कहते हैं नेतृत्व, साहस और आत्मविश्वास ।
" एक वो थीं.....,एक ये हैं "
युद्ध समाप्ति की घोषणा अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने किया, ऐसा भारत के इतिहास में पहली बार हुआ, एक सार्वभौमिक राष्ट्र का अपमान हुआ ।
गरिमामयी हार भी स्वीकार्य है किन्तु साहसहीन,डरपोक नेतृत्व कभी नहीं, कभी भी नहीं !
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