राष्ट्रपति की चिट्ठी और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी…
इन दो खबरों को सिर्फ़ खबर की तरह लेना देश की दशा और दिशा मुँह फेरना जैसा है। सीजफ़ायर की तरह भले ही इस खबर से लोग न चौंके होंगे लेकिन यह खबर उतनी ही चौंकाने वाली है…
हम जस्टिस बेला एम त्रिवेदी को लेकर सुप्रीम कोर्ट के वकीलों की रुख़ पर आयें उससे पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि आख़िर राष्ट्रपति द्रौपदी मूर्मू ने सुप्रीम कोर्ट को पत्र क्यों लिखा ।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के ऐतिहासिक फैसले पर कड़ी प्रतिक्रिया जताई है, जिसमें राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय-सीमा निर्धारित की गई थी। राष्ट्रपति ने इस फैसले को संवैधानिक मूल्यों और व्यवस्थाओं के विपरीत बताया और इसे संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण करार दिया। संविधान की अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से 14 संवैधानिक प्रश्नों पर राय मांगी है। यह प्रावधान बहुत कम उपयोग में आता है, लेकिन केंद्र सरकार और राष्ट्रपति ने इसे इसलिए चुना क्योंकि उन्हें लगता है कि समीक्षा याचिका उसी पीठ के समक्ष जाएगी जिसने मूल निर्णय दिया और सकारात्मक परिणाम की संभावना कम है।
राष्ट्रपति मुर्मू ने एक और महत्वपूर्ण सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि राज्य सरकारें संघीय मुद्दों पर अनुच्छेद 131 (केंद्र-राज्य विवाद) के बजाय अनुच्छेद 32 (नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा) का उपयोग क्यों कर रही हैं। उन्होंने कहा, “राज्य सरकारें उन मुद्दों पर रिट याचिकाओं के माध्यम से सीधे सुप्रीम कोर्ट आ रही हैं। यह संविधान के अनुच्छेद 131 के प्रावधानों को कमजोर करता है।”
हालाँकि सुप्रीम कोर्ट इस सवाल को सीधे ख़ारिज कर सकती है…
अब इस सवाल को लेकर राष्ट्रपति पर सवाल उठाये जाने लगे है और इसे सत्ता यानी मोदी सरकार का पत्र कहा जा रहा है
दूसरी खबर भी कम चौंकाने वाला नहीं है , आख़िर वकीलों ने यह क्यों किया
दरअसल जस्टिस बेला त्रिवेदी, सुप्रीम कोर्ट की एक ऐसी जज जिसके कानूनी योग्यता, संविधान के प्रति निष्ठा तथा आचरण के तौर पर ईमानदारी एवं सत्यनिष्ठा पर सदैव सवालिया निशान लगा रहा,
गुजरात निवासी बेला त्रिवेदी,मोदी शाह गैंग की ज्यूडिशियल प्यादों में गिनती की जाती थीं, नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्री कार्यकाल में उनकी कानून सचिव थीं। ये कभी किसी हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश नही रहीं, किन्तु सत्ता के दांव पेंच से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचाया गया। गणपति बप्पा, भक्त पूर्व सीजेआई चंद्रचूड़ ने अपने कार्यकाल में सरकार विरोधी हर केस की सुनवाई इसी बेला त्रिवेदी के बेंच को सौंपते थे, बल्कि नियम परिपाटी को ताख पर रखकर कुछ केस इन्हें दिए गए तब वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण एवं दुष्यंत दवे, सिंघवी जैसे बड़े वकीलों ने इसके खिलाफ सार्वजनिक तौर पर आवाज उठाया था।
जैसे कि वकील प्रशांत भूषण ने जस्टिस बेला त्रिवेदी की अगुवाई वाली पीठ के समक्ष मामलों के समूह को 'मनमाने ढंग से' सूचीबद्ध करने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार को पत्र लिखा था। ये मामले त्रिपुरा दंगों पर तथ्यान्वेषी रिपोर्ट के संबंध में पत्रकारों और वकीलों के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA Act) लागू करने को चुनौती देते थे।
हालांकि, 29.11.2023 को मामलों के बैच को जस्टिस त्रिवेदी के नेतृत्व वाली पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया गया। भूषण ने कहा कि यह सूची मनमानी है और सुप्रीम कोर्ट नियम, 2013 के आधार पर न्यायिक पक्ष पर अभ्यास और प्रक्रिया और कार्यालय प्रक्रिया पर हैंडबुक के खिलाफ है।
पत्र में कहा गया कि लंबित मामलों को सीनियर पीठासीन न्यायाधीश के समक्ष सूचीबद्ध किया जाना है और पहले सब-जज को केवल तभी सूचीबद्ध किया जाए, जब सीनियर पीठासीन न्यायाधीश अनुपलब्ध हो।
और अब प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बी.आर. गवई ने शुक्रवार को रिटायर्ड जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी के लिए सामान्य विदाई समारोह आयोजित नहीं करने के ‘सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन’ (एससीबीए) के फैसले की निंदा की...
परंपरा के अनुसार, एससीबीए उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के लिए विदाई समारोह आयोजित करता है और न्यायमूर्ति त्रिवेदी के मामले में एक असाधारण निर्णय लिया गया,..
अब आप समझ ही गये होंगे कि सत्ता क्यों आवारा हो जाती है…
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें