मंगलवार, 22 मई 2012

घोर निराशाजनक सरकार.


यू पी ए. के तीन साल पूरे हो गये पहले तो हमने सोचा था कि इस पर कुछ नहीं लिखेंगे। आखिर तीन साल में सरकार ने ऐसा कुछ किया ही नहीं कि कुछ लिखा जाए। गठबंधन में बैठी ममता बेनर्जी ने वामदलों को हराने की खुशी में आपे से बहार है और देश के प्रधानमंत्री तो कुछ बोल ही नहीं सकते। वित्त मंत्री ने जब यह कह दिया कि अगले दो सालों तक गठबंधन की मजबूरी में बंधे रहेंगे तो फिर इस सरकार पर क्या लिखा जाए।
घोटाले-भ्रष्टाचार पर कोई कितना भी लिखे और फिर यह सब यूपीए में ही नहीं सभी राज्य की सरकारें कमोबेश घोटाले में फंसी हुई है। छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक कि सरकार कोयले की कालिख में पूति है। सत्ता पाने का मतलब  अपने आने वाले सात पीढिय़ों की व्यवस्था करना रह गया हो। सरकारी नौकरी का मतलब बंधी-बंधाई तनख्वाह से आगे की कमाई का हो तब अन्ना-बाबा का तानाशाही रवैया कितना अनुचित कहा जायेगा?
यूपीए सरकार की गिरती साख के बीच मनमोहन सिंह ने जरूर रिकार्ड बनाया है नेहरू गांधी के बाद लम्बे समय तक प्रधानमंत्री के पद पर बने रहने का। यह रिकार्ड आगे भी चलता रहेगा। आखिर सत्ता शीर्ष पर अब राजनैतिक पार्टियां दो ही तरह के लोगों को पसंद करती है या तो वे कुछ न करे या फिर जरूरत से ज्यादा करें।
लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे निराशाजनक बात यह है कि सत्ता में बैठने लोगों को केवल 40-42 फीसदी लोग ही पसंद करते है शेष 58-60 फासदी लोग तो विरोध मेें मत देते है लेकिन विधायक सांसदों की संख्याबल के कारण सत्ता मेे बैठ जाते है।
पूरा देश भ्रष्टाचार की चपेट मे है। रमन सिंह से लेकर मनमोहन सिंंह पर भ्रष्टाचार की कालिख पूति हुई है लेकिन बहुमत साथ है तो फिर अन्ना-बाबा जैसे लोग चिखतेे रहें क्या फर्क पड़ता है? इन तीन सालों में यूपीए का तीस हाल हो चुका ह। गठबंधन की मजबूरी की बात कहकर हर मामले को टाल दिया जाता है। दरअसल यह गठबंधन नहीं सत्ता में बने रहने की मजबूरी है लेकिन सच बोलने से परहेज करने के लिए नई परिभाषा गढ़ दी जाती है। वरना देश हित से ज्यादा सभी को सिर्फ पार्टी हित सर्वोपरि हैै।
                          

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