छत्तीसगढ क़ी राजधानी रायपुर ही नहीं देश के विभिन्न क्षेत्रों में यह आम बात है कि नगर निगम के द्वारा जल कर मल टैक्स लिया जाता है। सफाई-बिजली टैक्स भी निगम द्वारा लिया जाता है। यह टैक्स उन तमाम लोगों से भी वसूला जाता है जिन्हें निगम पानी की सुविधा नहीं देती। यमूमन यह खबर तो आए दिन पढ़ने को मिल ही जाता है कि बजबजाती नालियों से लोग परेशान है। सफाई व्यवस्था का बुरा हाल है, पीने की पानी की सप्लाई ठीक से नहीं किया जा रहा है, स्ट्रीट लाईटें हफ्तों तो कहीं-कहीं महीनों नहीं जलती लेकिन नगर निगम या पालिका आम लोगों से बराबर टैक्स वसूलती है।
यह सरकार द्वारा बनाया नियम है कि शहर या कस्बों में रहने वालों को पानी-बिजली-सफाई का टैक्स देना ही होगा भले ही निगम उन्हें यह सुविधा दे या न दें? यह कौन सी व्यवस्था है? क्या निगम कर्मचारियों को वेतन समय पर मिले सिर्फ इसलिए वे लोग भी टैक्स दें जिन्हें इन सुविधाओं के अभाव में भोगना पड़ रहा है? आम आदमी कुछ नहीं कहता वह सरकार से लड़ भी नहीं सकता? उसे अपनी बातें कहने का हक तक नहीं है हमने स्वयं कितनी बार इस व्यवस्था के खिलाफ बहुत कुछ कहा है कि यह व्यवस्था नहीं अव्यवस्था है। बगैर सुविधा दिए टैक्स वसूलना सरकारी ्अत्याचार नहीं तो और क्या है?
ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ म्यूनिसिपल कार्पोरेशनों में हो रहा या सिर्फ छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के लोगों के साथ ही अत्याचार हो रहा है। यह अमूमन पूरे देश में चल रहा है। कानून बनाने वाले नेताओं और सरकारी नुमाइंदों को अपनी सुविधा में कटौती बर्दाश्त नहीं है इसलिए वह इस तरह का कानून बनाती है जिससे कम सुविधा देकर अधिकाधिक टैक्स वसूल सकें। क्या इस मसले पर किसी सामाजिक संस्थाओं ने आवाज उठाया है? नहीं? वैसे भी अब सामाजिक संस्थाएं नाम की रह गई है। सरकारी ग्रांट के लिए जीभ लपलपाते सामाजिक संस्थाओं का काम थोड़ा कर यादा प्रचारित करने की छवि बन चुकी है। यादातर सामाजिक संस्थाएं साल में कुछ गरीब बच्चों को ड्रेस, कापी, किताब और बृक्षारोपण तक सिमट कर रह गए हैं।
सरकारी अत्याचार के प्रति किसी सामाजिक संस्था में आवाज उठाने की हिम्मत नहीं रह गई है और न ही जनप्रतिनिधि चुने गए पार्षद ही आवाज उठाने की हिम्मत करता है कि उसके वार्ड के वही लोग पानी का टैक्स देंगे जिन्हें सुविधा मिल रही है। पार्षद क्यों ऐसा प्रस्ताव पारित नहीं करते कि उनके वार्ड में जिन्हें सुविधा दी जा रही है वे ही टैक्स देंगे? अब तो सांसद-विधायक के बाद पार्षदों को भी वेतन न सही भरपूर मानदेय मिल रहा है भट्ठी से लेकर सटोरियों और टेंकर से लेकर सफाई कर्मियों की हाजिरी लगाने में भी भरपूर पैसा मिलता है ठेकेदारी जम जाए तो सोने में सुहागा है। बगैर सुविधा दिए टैक्स वसूली के बाद भी अधिकांश म्यूनिसिपल कार्पोरेशन की हालत जर्जर है तो इसकी वजह अव्यवस्था के अलावा कुछ नहीं है। अपनी सुविधा के लिए हाय तौबा मचाने और भ्रष्टाचार में गले तक डूबने की वजह से निगमों की हालत खराब है। निगम की आय बढ़ाने के उपाय पर किसी का ध्यान नहीं है। कैसे स्वयं के लिए वसूली हो इसका ध्यान अधिक है। हमारी लड़ाई इस तरह की अव्यवस्था के खिलाफ जारी रहेगी।
अच्छा लगा ,सार्थक प्रयास ।
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